पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७३५

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न कि ग्यारहवाँ अध्याय ७५५ परम आधार (हो), तुम्ही ज्ञाता, ज्ञेय और परम ज्योतिस्वरूप (हो)। हे अनन्तरूप, तुमने विश्वको व्याप लिया है ।३८। वायुर्यमोऽग्निवरुणः शशांक: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥३६॥ वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति----ब्रह्मा, कश्यप, दक्ष आदि-और उनके भी दादा हो । आपको हजार बार नमस्कार है और पुनरपि आप हीको बार-बार नमस्कार है ।३६। यहाँ प्रजापतिका अर्थ ब्रह्मा, दक्ष, मरीचि, कश्यप ग्रादि सभी है। एक वचन कहनेमे कोई हर्ज नही है। तभी तो सभी लिये जायेंगे, खास तरहसे एकाध ही । यह कहना कि ये ब्रह्माके बेटे है गलत बात है। मनु, सप्तर्षि आदिकी ही तरह ये सभी मानस है । मनु अादि भी प्रजापति ही है। सबको भगवानने सकल्पसे ही पैदा किया। ब्रह्माको पितामह भी कहते है और वह प्रजापतियोमे ही आ गये। इसीलिये भगवानको ही प्रपितामह या उनका दादा कहा है । नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व । अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्व सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥४०॥ हे समस्त जगत्स्वरूप, आपको आगेसे नमस्कार, पीछेसे नमस्कार, और सब ओरसे नमस्कार है। आप अनन्तवीर्य तथा अमित पराक्रमवाले है। आप ही सभी पदार्थोके रगरगमे व्याप्त है । इसीलिये सभीके स्वरूप ही है ।४०॥ वीर्य कहते है वीरता या शक्तिको, सामर्थ्यको । उसके अनुसार आगे बढने या कामको पराक्रम कहते है । सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥४१॥