७६४ गीता हृदय वातको बीचमे पूरा कर लेना भी जरूरी था। तभी असली वातका सिलसिला ठीक-ठीक चल सकता था। बात यो हुई कि कृष्णने अपना साकार विराट रूप दिखाके अर्जुनसे साफ कह दिया कि इसके जानने और देखनेका कोई दूसरा उपाय नही है, सिवाय इसके कि अनन्य-भक्ति की जाय । उनने यह भी कह दिया कि जो कुछ भी किया जाय वह भगवदर्पण बुद्धिसे ही। जवतक यह न होगा यह दर्शन असभव है । यह ठीक है कि सिर्फ दर्शन होके ही खत्म हो न जायगा। किन्तु दर्शकको मुक्ति भी मिलेगी। फिर भी इस दर्शनके रास्ते मुक्तितक पहुँचना दुर्लभ चीज है। इससे अर्जुनके दिलमे फौरन ही यह खयाल होना जरूरी था कि ऐ, कृष्ण तो इसी साकारकी उपासना और भक्तिको यज्ञादिसे भी बड़ी चीज मानते तथा इस साकार दर्शनको दुर्लभ कहते है । मगर यहाँ तो बरावर ही देखा-सुना जाता है कि निराकार ब्रह्ममे ही विवेकी लोग दिनरात लगे रहते है । आखिर ऐसा क्यो होता है ? यदि यही उत्तम मार्ग है तो लोग उसमे क्यो पडते है यह भी नहीं कि मामूली लोग ही उधर जाते है । नही, नही । वह तो बडे-बडे अगडधत्तो और विवेकियोका ही मार्ग है। बल्कि जनसाधारणके लिये तो वह दुर्लभ ही है । इसलिये यह तो मानना ही होगा कि वह मार्ग भी उत्तम ही है । खुद कृष्णने भी तो पहले उसपर बहुत ही जोर दिया है। फिर उत्तम मगर अभी-अभी इनने जो कुछ कह दिया उससे तो साकारकी उपासना ही अच्छी सावित होती है । यह तो अजीव घपला है । यह पहेली तो निराली है। इसीलिये उसने चटपट कृष्णसे पृछ ही तो दिया कि बात क्या है रान्ते तो दोनो आपके ही बताये है। इसीलिये अव साफ-साफ कहिये न, कि इन दोनोमे कौन अच्छा है ? इन दोनोपर चलनेवालोमें जोई अच्छे और कुगल होगे में उन्हीको पसन्द करूंगा। 'योगवित्तमा' शब्द देनेका ? क्यो न हो ?
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