बारहवाँ अध्याय ७६५ भी मतलब है। योग तो उपाय ही ठहरा, जिसे मार्ग कहिये या रास्ता । इन दोनो मार्गोके जानकार और इनपर अमल करनेवाले लोग योगवित् हुए, यह भी ठीक ही है । मगर दोनोमे ज्यादा कुशल कौन है, अच्छे कौन है, योगवित्तम कौन है यही बता दीजिये तो काम चले, यही आशय अर्जुनका है। दरअसल ग्यारहवे अध्यायके समूचे प्रसगमे अन्तके वचनोको सुनके ही अर्जुनको एकाएक यह खयाल हो आया और उसने फौरन उसे जाहिर कर दिया। उसने बहुत ज्यादा इस बारेमे सोचा-विचारा नही। नही तो शायद उसे ऐसा पूछनेकी जरूरत होती ही नही। उसे खुदबखुद सन्तोष और समाधान हो जाता। क्योकि छठे अध्यायके बाद भी कृष्णने निराकार आत्मामे लगने तथा उसके अनन्य चिन्तनकी बात कही ही है । छठे अध्यायमे या उससे पहले तो यह वात खूब ही आई है। साख्ययोग तो दरअसल यही है भी और उसीसे गीताका श्रीगणेश हुआ है । ज्ञानका जो रूप पहले भी और खासकर चौथे तथा छठे अध्यायमे आया है वह कितना महत्त्वपूर्ण है। उसकी प्राप्तिके लिये यत्न करनेपर भी कितना जोर दिया है ! यही नही । यदि ग्यारहवे अध्यायके अन्तवाले इन श्लोकोको ही देखे तो उनमे क्या लिखा है ? उनमे यह कहाँ कहा गया है कि ज्ञानमार्ग या निराकार ब्रह्मकी समाधिसे भी यह साकार चिन्तन या सगुणकी भक्ति श्रेष्ठ है ? वहाँ तो इतना ही कहा है कि वेद, तप, दान और यज्ञसे भी यह दर्शन होनेको नही। इसलिये अनन्य भक्ति करो। यह तो नही कहा कि ज्ञान और समाधिसे भी यह होनेको नही। यदि वेद, तप, दान और यज्ञसे इस उपा- सनाको श्रेष्ठ बताया, तो बुरा क्या किया ? यह तो ठीक ही है। ये चारो तो वेकार है यदि इनके करते भगवानमे भक्ति न हो। यह भी नही कि यज्ञ शब्दसे ज्ञान भी लिया जाय । ऐसा करना तो दूरकी कौड़ी लाना हो जायगा। हम तो यह भी कह चुके है कि ग्यारहवे अध्यायका
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