गीता-हृदय यज्ञ शब्द ज्ञानको छोडके और यज्ञोको ही, और आमतौरसे प्रसिद्ध यज्ञोको ही, बताता है। जिस ज्ञानसे इस भक्तिको तर्जीह देनी हो, जिससे इसे श्रेष्ठ कहना हो उसीका नाम सीधे न लिया जाकर यज्ञके रूपमें ही उसे लाके उससे इसकी विशेषता बताई जाय, यह भी निराली समझका काम है। जब आगे वारहवेमे स्पष्ट ही वही बात अर्जुन कहता है, तो कृष्ण- को उससे पहले कहनेमे क्या हिचक हो सकती थी, यदि उनका वही आशय होता? इसीलिये अगत्या मानना ही होगा कि कृष्णका ऐसा कोई आशय न था। नहीं तो साफ ही बोल देते । सो भी तीसरे अध्यायमे अर्जुनके यह कहनेके वाद, कि गोलमोल बातें कहके, ऐसा लगता है कि, आप मुझे घपलेमे डाल रहे है, कृष्णके लिये यह जरूरी हो गया था कि स्पष्ट कहें। उनने बरावर ऐसा ही किया भी है। इसीलिये पुनरपि अर्जुनको यह इल्जाम लगानेका मौका नहीं मिल सका है। मगर अगर ऐसा ही माने, जैसा कि कुछ लोग कहते है , तव तो यहीपर उस इलजामका सुन्दर मौका था और अर्जुनको वही कहना भी चाहता था। लेकिन यह तो अर्जुन भी नहीं कहता है कि साकार उपासनाको कृष्णने श्रेष्ठ कहा है । वह तो इतना ही मानता है कि दोनो ही पर कृष्णका जोर काफी है। मगर ग्यारहवेंमे प्रसग साकारका ही है । इसीलिये उसने खुद पूछा कि पाया दोनो रास्ते वरावर ही है या इनमे कोई श्रेष्ठ भी है । दोनोपर वराबर ही जोर देना उसे मालूम हुआ था जरर । फिर भी हरेक तो दोनोको कर नही सकता। इसलिये दोनोमे एकको उसे चुनना ही होगा। इसीसे वह पूछता भी है कि कौनसा एक अच्छा है। अच्छा, मान ले कि अर्जुन दोनोमे किसी एककी विशेपता ठीक ही समझ न सका था। इसीलिये तो उसने पूछा। फिर भी कृष्णने उत्तरमें साकारोपासनाको उत्तम करार दे दिया। लेकिन यह भी अजीव वात
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