पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बारहवाँ अध्याय ७७१ . ही देखती है । क्योकि करनेवालेकी आत्मा तो कहो सीमित न होके अपरिमित है। फलत सभी पदार्थोंको अपने गोदमे रख लेती है । गीताके इस महान् मन्तव्यके निकट केवल मार्क्सका ही सिद्धान्त पहुँच पाता है । क्योकि मार्क्स तो समृचे समाजका ही आमूल परिवर्तन करके उसका पुनर्निर्माण चाहता है जिससे किसी एकको भी किसी प्रकारकी असुविधा जरा भी न रह जाय । प्रकृति, रोगव्याधि तथा मृत्यु प्रादिपर भी विजय प्राप्त की जा सके । सभी तरहकी बीमारियो, प्राकृतिक उपद्रवो, युद्धो और सघर्षोंपर मानव-समाजका ऐसा आधिपत्य हो जाय कि ये जडमूलसे मिट जायें और अखड शान्ति सर्वत्र विराजने लगे । यदि मानव-समाजको आराम दे सके भी तो प्राकृतिक उपद्रवो, रोगो और युद्धोसे मनुष्यो, पशु-पक्षियो और जमीन, पहाड, घरबार वगैरहका सहार होता ही रहेगा। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी भूतोका हित हो गया है। सभी भूतोके हितोका साधन किया जा रहा है ? इन उपद्रवोको निर्मूल करनेमे जबतक सफलता न मिले तबतक यह बात कही जा सकती नहीं। इसलिये उस सफलताके लिये जो लोग दत्तचित्त है और समाजको नये साँचेमे ढालना चाहते है सचमुच वही 'सर्वभूतहितेरता' कहे जा सकते है। या नही, तो ऐसोके निकटवर्ती तो वे अवश्य ही माने जा सकते है। उनमे तथा सर्वभूतहितेरतोमे वहुतही कम अन्तर रह जायगा। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। अनन्यनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥६॥ तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । भवामि नचिरात्यार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥७॥ हे पार्थ, (इनके विपरीत) जो लोग सभी कर्मोको मुझमे अर्पण करके मुझ (साकार भगवान) को ही सबसे बढके मानते हुए तथा अनन्यभावसे