७८४ गीता-हृदय इनमें आ फंसी ? यदि ये पूर्व जानेवाले है तो वह पच्छिम । फिर यह क्या हो गया कि दोनोकी जुटान आ जुटी और सारी विडम्बना खडी हो गई? इस तरहके प्रश्नोका उठना निहायत अनिवार्य है। कृष्ण इसे बखूबी समझते थे। यही कारण है कि विना पूछे ही इनका उत्तर देना तेरहवे अध्यायके पहले ग्लोकसे ही शुरू कर दिया । सचमुच गीताका यह अध्याय बहुत ही सुन्दर है । इसकी व्यावहारिक उपयोगिता होनेके साथ ही निरूपणकी शैली कितनी सरस और चित्ताकर्षक है । देखिये तो सही, आखिर खेतोका और खेतिहर किसानका भी क्या ताल्लुक होता है । किसान जब चाहे छोडके भाग जा सकता है । उसीने तो खेतोको अपनाया है और उनके हानि-लाभकी जवाबदेही माथे पर अपने मनसे ही ली है। परिणाम यह होता है कि वह खेतोके साथ बँध जाता है, उसका उनके साथ अपनापन हो जाता है, उन्हें वह अपना---- निजी-मान बैठता है। हालाँ कि जमीदार और सरकार पद-पदपर उसे उनसे बेदखल करनेको तैयार रहती है । बेदखल कर भी देती है । फिर भी उसका अपनापन पिंड नहीं छोडता और वह छाती पीटके मरता है । बेदखलीके पहले भी न सिर्फ उनकी उपजके ही लिये जवाबदेह होता है, किन्तु उनसे होनेवाले हानि-लाभका भी उत्तरदायित्व उसी पर होता है । वह उसीके पीछे मरता रहता है। इतना ही नही । यो तो उसने अपने मनसे उन्हे हथियाया था। मगर अगर यो ही उन्हें छोड भागना चाहे तो जाने कितनी ही कानूनी-गैरकानूनी अडचर्ने खडी हो जाती है, जिनके करते छोडके भाग भी नहीं सकता। इस बुरी गतिके लिये बेशक उसकी नादानी, वेअक्ली और पस्तहिम्मती ही जवाबदेह है । यह वात हमारी नजरोके सामने रोज ही गुजरती है। वस, ठीक यही हालत आत्माकी है। वह खेतिहर है, खेती करने-
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