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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७६५

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7 तेरहवां अध्याय ७८५ बाला है, खेतोकी सारी बाते जानता है कि खेत कैसे है, किनमे क्या पैदा होता है, हो सकता है, वगैरह वगैरह । वह क्षेत्रज्ञ है, क्षेत्री है। और ये इन्द्रियादि भौतिक पदार्थ ? यही तो खेत है, क्षेत्र है । यही तो लम्बे- चौडे चारो ओर फैले है और जाने हजारो तरहकी बुरी-भली फसले पैदा करते रहते है। इन्हीके मालिक आत्माराम है। वह इन्हीको लेके परीशान है, पामाल हो रहे है, जल-मर रहे है । इन खेतोके भी दो विभाग है, व्यष्टि और समष्टि । व्यष्टि या टुकडे-टुकडेके भीतर सभीके जुदे- जुदे शरीर वगैरह आ जाते है । समष्टि, जो एक जगह मिली-मिलाई चीज है, के भीतर, प्रधान या मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहकार आदि आ जाते है। यह बात हम पहले ही बखूबी बता चुके है । वही कह चुके है कि महत्, महत्तत्त्व या महान् नाम समष्टि बुद्धिका ही है । इसी बातको इस तेरहवेके शुरूमे ही अच्छी तरह लिख दिया है। आत्माके शरीरके ही भीतर इस स्थूल शरीर और प्रकृतिको लिखा है। उसके बाद इससे सम्बन्ध रखनेवाली सभी चीजोका ब्योरा भी दिया है। इस तरह समूचे ससारको शरीर और शरीरवाले या शरीरी-देही–के रूपमे दो हिस्सोमे बाँट दिया है और कह दिया है कि यह सब ब्रह्म, आत्मा या परमात्माका ही-मेरा ही--पसारा है । जब शरीरकी सारी बातोकी जवाबदेही शरीरी पर ही है यह रोज ही देखते है, इसीलिये शरीरके सुख-दु खोको भी उसे ही भोगना पडता है, तो फिर समूचे ससारकी बला भी उसीके माथे क्यो न आये ? जैसे रस्सीका काम है किसी पदार्थको कही बाँध देना, फाँस देना, रस्सीको गुण या गोन भी कहते है, ठीक उसी तरह तीनो गुणोने इस खेतिहर आत्मारामको शरीरमे बाँध और फाँस दिया है। यही बात “कारण गुणसगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु" (१३।२१) में कही गई है। जिस तरह वेश्या किसी भोले-भालेको फँसाके उसे खराब कर डालती है, वैसे ही प्रकृति अपनी अनेक वेषभूषा बनाके आत्माको फंसा . .