६४ गीता-हृदय रहना लाजिमी है उसीका यह मतलब है कि हरेक इन्सान वगैरहके जिस्म- की बनावट निरन्तर बदल रही है। तीस साल पहले जिन सजीव झिल्लियो- से मनुष्यका शरीर बना होता है, वे उस मुद्दतके वाद रह नही जाती है । उस समय जिन परमाणुप्रो से शरीर बना था उनमे एक भी रह नही जाते। फिर भी विना हिचक कह देते है कि यह वही आदमी है। किसी जीवित पदार्थका समय पाके जो विकास होता है या उसमे जो गति हो जाती है, उसमे जो परस्पर विरोध होता है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि किसी पदार्थके एक स्थानसे दूसरे स्थानमे जानेमें। "इसीलिये जीवन भी विरोधी चीज है और यह विरोध खुद पदार्थों और उनकी क्रियाअोमे ही मौजूद है। यह विरोध अपने आप ऊपर आ जाता है और फिर इसका समाधान भी हो जाता है। यह विरोध ज्योही खत्म हुआ कि जीवनलीलाका भी अन्त हुआ और मौत आ धमकी।" इस प्रकार अत्यन्त वैज्ञानिक तर्क दलीलके साथ गीताने भी बहुत समय पहले एगेल्सकी ही तरह कह दिया था कि यदि इस प्रकार परस्पर विभिन्न शरीरोके होते हुए भी हम उन्हें एक ही मानते है, और सबसे बड़ी बात यह है कि आत्मा एक ही रहती है, उसका परिवर्तन या नाश नहीं होता, इसीलिये तो बचपनको देखी-सुनी बातोकी याद बुढापेमे भी हो अाती है, तो वर्तमान शरीरके मिलनेके पूर्व और इसके खत्म होने के बाद जो शरीर थे और जो मिलेंगे उनमें भी उसी आत्माकी सत्ता मानने में क्या अडचन है जो इस वर्तमान शरीरमे है ? जिस तरह एक जन्मके ही तीन विभिन्न शरीर बताये गये है वैसे ही तो तीन जन्मोके भी तीन है और आगे बढके तीस और तीन लाख जन्मोके भी होते है। बात तो सर्वत्र एकसी है। यदि वचपनको सभी बातें बुढापेमे याद नही आती है और शायद ही एकाधका स्मरण होता है, तो दूसरे जन्मके शरीरोके वारेमें भी ऐसा ही होता है । कोई बच्चा पढने या दूसरे ही कामोमे
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