प्रात्माका स्वरूप X . कुन्द, कोई तेज और कोई अत्यन्त विलक्षण होता है। इससे मानना पडता है कि पूर्व जन्मके अभ्यास काम कर रहे है, ठीक जैसे निद्राके बाद पहले पढ़ी-लिखी बात याद आ जाती है। मौत भी तो आखिर नीदकी बड़ी बहन ही है न ? इसमें तम या अन्धेरे का पर्दा बहुत ही सख्त होनेके कारण स्मृति और भी पतली पड जाती है या शायद ही कभी किसीको होती है। लेकिन हमारा प्रयोजन यहाँ इन बाहरी दलीलोसे नही है । हमे तो एक ही युक्ति-तर्कको नमूनेके तौर पर पेश कर देना था। बीचके "अथ नं नित्यजात" (२६) आदि श्लोकोमे जो आत्माके मरने या विनाशकी बात कही गई है, वह तो केवल स्वधर्मसे विमुख न होनेके ही लिये सहकारी तर्क (supplementary argument) के रूपमे ही है। वहाँ तो इतना ही कहना है कि जैसे शरीरका नाश अनिवार्य है, इसीलिये उसे बचानेके खयालसे भी युद्ध रूप स्वधर्मसे भागना मूर्खता है, ठीक उसी तरह यदि आत्माको भी नश्वर और क्षणभगुर ही मान ले, तो भी स्वधर्मसे विमुख होना कभी वाजिब नही। क्योकि जो बिगडेगा वह फिर बनेगा और जो बनेगा, जरूर ही बिगडेगा, यही संसारका नियम है और यह हमारे काबूकी बात है नही कि इसे ही रोक दे। यदि हम न भी लडे, तो भी आत्माका नाश तो होगाही, यदि हमने उसे अनित्य मान लिया। बस, इसका इतना ही मतलब है । ऐसा समझनेकी भारी भूल कोई न करे कि ऐसा कहके गीताने भी आत्माको विनाशी माना है सारीकी सारी गीता इस सिद्धान्तके खिलाफ है। सैकडो बार आत्माकी अमरता और एकरसता उसमे दुहराई गई है। इसके बाद अध्यात्मवादके बारेमे कुछ भी कहना रह जाता नही । फलत ३१-३७ श्लोकोमे धर्मशास्त्रोके विधि-विधान और दुनियामे नेक- नामी बदनामी एव आत्मसम्मानके आधारपर उसी स्वधर्मके करनेकी ५ .
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