पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७७१

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तेरहवां अध्याय ७६१ है। प्रकृतिसे पैदा होनेसे विकृति या विकार और कार्य कहे जाते है । खुद इन्द्रियादिको पैदा करनेके कारण ही प्रकृति या कारण भी कहे जाते है। तीसरे श्लोकमे जो क्षेत्रके प्रकारका उल्लेख है वह यही सात है । प्रकृति-विकृतिकी जगह यादृक् या जितने प्रकारका कह दिया है। शेष सोलह और इच्छादि सात कुल तेईसको यहाँ विकार, विकृति या कार्य कहा है। साख्यके सोलहकी सख्याको कुछ और भी बढा दिया है । दूसरा फर्क नही है । इसका और भी विस्तार हो सकता है । इसीलिये कह दिया है कि सक्षेपमे ही इतने गिनाये है। तीसरे श्लोकमे "जिससे जो बनता या होता है"--"यतश्चयत्" भी एक बात कही गई है। उसका उत्तर या विवरण आगेके पाँच श्लोकोमे है । तीसरे श्लोकमे इसके बाद ही क्षेत्रज्ञकी बात आ गई है, जिसका विवरण इन पाँच श्लोकोके बाद ही १२वेसे १७वे तकमे आया है। फिर १८वेमें सभीका उपसहार कर लिया है । यहॉतक तो तीसरे श्लोककी बाते सक्षेपमे ही कह दी गई है। इसीलिये १६वेसे फिर विशेष विवरण और निरूपण क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके ही वारेमे चला है, न कि अन्य ब्योरेके बारेमे । अठा- रह।मे लिखा है कि क्षेत्र, ज्ञान और जेय-क्षेत्रज्ञ-को कह चुके । उससे पता चलता है कि पाँच श्लोकोमे जो ज्ञानकी बात आई है वही "यतश्चयत्" का उत्तर या विवरण है । इन शब्दोका मोटा अर्थ यह है कि "जिससे जो हो सके" । साढे चार श्लोकोमे जो कुछ गिनाया है वह ज्ञानोत्पत्तिके साधन है। उनके बिना ज्ञान होई नही सकता। उनमे हरेक ज्ञानके लिये अनिवार्य रूपसे अपेक्षित है, जैसा कि उनके नामोसे ही स्पष्ट है । कुल २१ बाते गिनाई गई है और सभी ऐसी ही है ।, यो तो "जन्ममृत्यु- जराव्याधि” (१३।८) मे चारोके अलग-अलग दुख एव दोष देखनेसे आठ हो जा सकते है । फलत २१की जगह २७ हो जायेंगे। शेष आधे. या ग्यारहवेके उत्तरार्द्धमे कह दिया है कि ये ज्ञान है और इनसे उलटी