७६२ गीता-हृदय बातें है अज्ञान है । ज्ञानके साधन होनेसे ही इन्हें ज्ञान कह दिया है। इसी तरह अज्ञानके साधन या पैदा करनेवाले अभिमान, दभ, हिंसा आदिको अज्ञान भी इसीलिये कह दिया है । इससे साफ हो गया है कि किनसे ज्ञान पैदा होता है और किनसे अज्ञान । इस तरह जिससे जो पैदा होता है यह जो तीसरे श्लोकमे कहा गया है उसका विवरण इन पाँचोमें पूरा हो गया। पाँचोने कह दिया कि अभिमान-शून्यता आदिसे ज्ञान होता है और अभिमान आदिसे अज्ञान । प्रमानित्वमदभित्वमहिंसा क्षातिरार्जवम् । प्राचार्योपासन शौच स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥७॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहकार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधि दुखदोषानुदर्शनम् ॥८॥ असक्तिरनभिष्वग पुत्रदारगृहादिषु । नित्य च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥६॥ मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनससदि ॥१०॥ अध्यात्मज्ञाननित्यत्व तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञान ,यदतोऽन्यथा ॥११॥ अभिमान-शून्यता, दभ या दिखावटी कामकी शून्यता, अहिंसा, क्षमा, नम्रता, प्राचार्य या उपदेशककी सेवा-शुश्रूषा, पवित्रता, स्थिरता, मनपर काबू, इन्द्रियोके विषयोसे वैराग्य, अहकारका त्याग, जन्म-मृत्यु-बुढापा- रोग इन चारोंके दुखो और बुराइयोका निरन्तर खयाल, पुत्र-स्त्री-घरवार आदिमे आसक्तिका त्याग तथा इनमे तन्मयताका न होना, बुरी-भली वाते हो जानेपर भी हमेशा चित्तमे उनका असर होने न देना, भगवान या आत्मामे ऐसी अनन्य भक्ति जो कभी डिग न सके, एकान्त स्थानका सेवन, लोगोके भीड-भडक्केमे रुचिका न होना, अध्यात्मशास्त्रमे निरन्तर
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