पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७७३

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तेरहवाँ अध्याय ७६३ लगे रहना और तत्त्वज्ञान या आत्मसाक्षात्कारके प्रयोजनपर नजर रखे रहना, यही ज्ञानके साधन है। इनके विरुद्ध अभिमान, दभ आदि अज्ञानको पैदा करते और बढाते है ।७।८।६।१०।११। ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥१२॥ सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्त्य तिष्ठति ॥१३॥ सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥१४॥ बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥१५॥ अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं असिष्णु प्रभविष्णु च ॥१६॥ ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥१७॥ जो जानने योग्य-क्षेत्रज्ञ-है और जिसके ज्ञानसे मोक्ष मिलता है वही वस्तु अभी-अभी कहे देता हूँ। (वह वस्तु) आदि शून्य परब्रह्म ही है । वह न तो स्थूल और कार्य कहा जाता है और न सूक्ष्म और कारण ही। उसके हाथ, पाँव, अॉख, सर और मुंह सभी जगह है-अर्थात् वह सर्वत्र मौजूद है । उसके कान (भी) सर्वत्र है । वह सभी पदार्थोको घेरे पड़ा है। सभी इन्द्रियोके कामोमे वह लिपटासा रहता है (जरूर)। (मगर वस्तुत ) सभी इन्द्रियोसे रहित है । कही भी चिपका नही है। (फिर भी) सबोको कायम रखता है । निर्गुण है। (साथ ही) गुणो (के कामो और फलो)को भोगता' (भी) है। सभी पदार्थोके बाहर भी है और भीतर भी। (स्वयमेव) चर, अचर (पदार्थ रूपी भी) है। सूक्ष्म