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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७७९

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तेरहवाँ अध्याय ७६९ . जैसा ही है। इसीलिये वस्तुत यह आत्मा महेश्वर ही है, परमात्मा ही है। य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृति च गुणैः सह । सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥२३॥ (इसीलिये) जो पुरुषको और प्रकृतिको भी गुणोके साथ इस तरह ठीक-ठीक जान जाता है वह चाहे किसी भी दशामे रहे, (फिर भी) पुनर्जन्म नहीं पाता ।२३। ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना। अन्ये सांख्यन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥२४॥ अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते । तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥२५॥ कुछ लोग ध्यानसे ही अपने ही भीतर अपने आप आत्माको (इस प्रकार) देखते है-साक्षात् करते है । दूसरे लोग साख्ययोगसे ही (ऐसा करते है) तथा तीसरे (दलवाले) कर्मयोगसे ही। लेकिन इस प्रकार नही जान सकनेवाले कुछ लोग तो दूसरोसे सुनके ही उपासना करते है । सुननेके अनुसार ही पूरा अमल करनेवाले वे भी जन्ममरणसे छुट्टी पाई जाते है ।२४१२५॥ ये दोनो श्लोक कुछ अजीवसे है। विशेष विचार न कर सकनेवाले इनसे धोकेमे पड़के आत्मज्ञानके चार स्वतत्र मार्गोका प्रतिपादन इन श्लोको- मे मान बैठते है, हालांकि "लोकेऽस्मिन् द्विविधा" (३।३)के अनुसार पहले वही लोग दोई स्वतत्र मार्ग मानते है। इस तरह इन श्लोकोके करते उन्हे भी घपलेमे पडना पड़ा है। लेकिन सच पूछा जाय तो इनमे ऐसी कोई बात है नहीं। २४वेके पूर्वार्द्धमे उसी समाधिका वर्णन है जिसका सविस्तर निरूपण छठे अध्यायमे और उससे पहले भी आया है। यही तो ज्ञानप्राप्तिकी