८०० गीता-हृदय अन्तिम सीढी है । मगर जो वहाँतक न पहुँच सके हो उनके ही लिये उसी श्लोकके उत्तरार्द्धमे नीचेकी दो सीढियाँ कही है। ऐसे लोग दो तरहके होते है, जैसा कि “तत्स्वय योगससिद्ध" (४१३८) और "सग त्यक्त्वात्म- शुद्धये" (५।११)मे कहा गया है, उसीके अनुसार कर्मोंके करते-करते जिनका मन शुद्ध हो चुका है ऐसे लोग एक दलमें है। अभीतक जिनके मनकी शुद्धि शेष ही है वही दूसरे है दलमें । फलत पहले ऊपर और दूसरे नीचे है। तदनुसार ही पहले दलवाले साख्यकी रीतिके अनुसार गुणोका विवेचन आत्मासे करके उसे निश्चय करते है । क्योकि जबतक ऐसा निश्चय न हो जाय समाधि होगी किसकी ? वस यही है साख्ययोग या साख्यकी रीति । परन्तु जो दूसरे दलवाले ऐसे नही है वह कर्म करते रहते है जिसे कर्मयोग कहा है। वह कर्मकी ही रीति या मार्ग है जिससे धीरे-धीरे मन शुद्ध होता है । यह भी बात है कि यह सभी बाते पूरी जान- कारीसे ही हो सकती है। यहाँतक कि कर्मोका मार्ग भी वीहड होनेके नाते बहुत जानकारी चाहता है । लेकिन जिन्हें यह जानकारी होई नही, वह क्या करें ? ऐसे लोग ही तो दुर्भाग्यवश ज्यादा होते है। इसीलिये उन्हीके खयालसे २५वे श्लोकमे सवसे नीचेकी सीढी कही है। ऐसे लोग दूसरे जानकारोसे सुन-सुनाके ही धीरे-धीरे इस काममे लगते है और आगे बढते है। कहनेका आशय यही है कि कर्म करनेवालोमें भी वे लोग नीचे दर्जे के ही होते है । बेशक वे ऐसे नही जो गीताकी गिनतीमें आये ही न । वैसोकी तो यहाँ चर्चा ही नही है । तीसरे अध्यायके शुरूमे ही गीताकी गिनतीमें जिन्हें लिया है उन्हीमें ये भी आ जाते है । अतएव ये चारो स्वतत्र मार्ग न होके एक ही मार्गकी नीचे-ऊपरकी सिर्फ सीढियाँ इस तरह ध्यान या समाधिके फलस्वरूप जो समदर्शन होगा वही ज्ञानका असली रूप है। उसीका वर्णन इस अध्यायके शेष श्लोकोमे है। इसी वर्णनमें उसकी महत्ता भी आ गई है और वह कब पूरा होता है यह
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