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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७८१

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तेरहवाँ अध्याय ८०१ भी कह दिया है। कुछ तर्क-दलीले भी दी गई है। इसका श्रीगणेश कहाँसे होता है यह भी बताया गया है। क्योकि जबतक यह न जान ले कि क्या मर्ज है तबतक औषधि क्या करेगे ? इसीलिये क्षेत्रक्षेत्रज्ञ या प्रकृति और पुरुपके पूर्वोक्त आलकारिक सम्बन्धसे ही इसका निरूपण यो शुरू करते है जिसका उल्लेख शुरूमे ही है, ताकि अन्तमे भी वह चीज याद आ जाये- यावत्संजायते किचित्सत्वं स्थावरजंगमम् । क्षेत्रक्षेत्रज्ञसयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥२६॥ हे भरतवशमे श्रेष्ठ, जो कुछ भी स्थावर और जगम पदार्थ है या बनते है वह क्षेत्र और क्षेत्रजके सम्बन्धसे ही होते है यह जान रखो ।२६। समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्त यः पश्यति स पश्यति ॥२७॥ (इसीलिये) सभी पदार्थोंमे एकरस रहनेवाले तथा उनके नष्ट होनेपर भी नष्ट न होनेवाले परमेश्वर (रूपी आत्मा) को जो देखता है-साक्षात् करता है--(दरअसल) वही देखता है—यथार्थदृष्टिवाला है ।२७) यहाँ निषेध दृष्टिसे (negatively) ही आत्माकी सत्ता मानी गई है, जिसे उपनिषदोमे नेति-नेतिकी दृष्टि या मार्ग बताया है । समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मान ततो याति परां गतिम् ॥२८॥ क्योकि सर्वत्र एकरस रहनेवाले ईश्वरको ही जो देखता रहता है वह स्वय आत्माको नष्ट नही करता-उसका असली रूप जान जाता है । इसीलिये वह परमगति-मुक्ति–पा जाता है ।२८। प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः । यः पश्यति तथात्मानमकर्तार स पश्यति ॥२६॥