पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७८४

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चौदहवाँ अध्याय , जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, चौदहवां अध्याय भी सृप्टिका विवेचन-विश्लेषण ही करता है। लेकिन यह करता है इस कामको एक प्रकारसे स्वतत्र रूपसे । इसकी वजह भी है जिससे यह अध्याय ही स्वतत्र हो गया है। तेरहवें अध्यायने बहुत फैली-फलाई मृप्टिको, जो काबूके बाहरसी प्रतीत होती थी, कावूमे कर दिया। क्योकि खेतिहर या किसान और क्षेत्र या खेतके रूपमे सारी बाते रखके इन्हें और इनको ही लेके बनी सृष्टिको भी जैसे छोटीसी बनाके कावूमे कर दिया गया है। क्षेत्रसे बाहर जब कुछ हई नही और उसके विना सारी घर-गिरस्ती ही चौपट है, तो काबू और कहते है किसे ? इस तरह जो चीज समझमे समा भी नही सकती थी वह अब दूसरी ही जान पडने लगी। अव उसका रूप इतना छोटा हो गया कि उसके नामसे होनेवाली घबराहट दूर होके उस समूची चीजके समझने-विचारनेमें सरसता आ गई। इसने ही उसमे चस्का भी पैदा कर दिया। लेकिन इतनेपर भी शरीर, इन्द्रियां, प्राण प्रभृति और विषयो एव विकारोके रूपमे यह सृष्टि विस्तृतकी विस्तृत ही है । सबोका खयाल- विचार करते-करते मनमें थकान या ऊवसी भी हो जाती है। शरीर, इन्द्रियाँ वगैरह कह देना जितना आसान है इनका विचार उतना आसान नही है। विचारिये और देखिये कि लम्बी-चौडी दुनिया सामने खडी हो जाती है या नही। फिर तो उधेड-वुन करते-करते माको दम हो जाती है, घबराहट पैदा हो जाती है । इसलिये जरूरत थी इस बातकी कि और भी सक्षिप्त रूपमें इसे रख दिया जाय । साथ ही, वह सक्षिप्त रूप ऐसा