पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७८५

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? चौदहवां अध्याय ८०५ हो कि साफ-साफ मालूम पडे, समझमे आये। सभी पदार्थोको उसने अपने उदरस्थ कर लिया हो यह भी स्पष्ट नजर आता रहे । यदि ऐसा उपाय निकल आये तो कितना सुन्दर हो, कितनी आसानी हो । भला, सभी विपयोका पूरा-पूरा विवेचन कर सकना और उनके गुणदोषको समझ पाना किसकी ताकतकी बात है ? यह भी कहना कि सभी चीजे बन्धनमे ही डालती है या बुरी है कितना खोखला लगता है ! आखिर ससारके भीतर ही तो उपदेशक, विवेक और समाधि प्रभृति भी है | तो क्या ये भी बुरे है ? यदि नही, तो समस्त संसारको बुरा क्यो कहा क्या ये ससारमे आ जाते नही ? ऐसी हजार पेचीदा बाते पडी है जिनका समाधान तेरहवे अध्यायसे नही हो पाता। इसलिये भी जरूरत थी कि कोई सरल मार्ग निकलता, कोई निराला आईना आविष्कृत होता, जिसमे सारी चीजे झलक पडती और उनकी बुराइयाँ साफ मालूम हो जाती। इन्ही सब खयालोसे चौदहवे अध्यायकी स्वतत्र आवश्यकता पड़ी। इसमे सारी सृष्टिको तीनो गुणोके भीतर 'गागग्मे सागर'की ही तरह रखके कमाल कर दिया है । फिर भी खूबी यह है कि इनमे सारी दुनिया आईनेकी तरह चमकती है और यह पता फौरन चल जाता है कि क्यो और कैसे हरेक चीज बन्धनका कारण होनेमे बुरी है । इतना आसान और सुन्दर रास्ता शायद ही कही कभी मिल सकनेवाला था। एक बात यह भी है कि तेरहवेमे जो यह कह दिया है कि “गुणोके साथ लिपटने और फँसनेसे ही आत्माका नीच-ऊँच योनियोमे जन्म होता रहता है"--"कारण गुणसगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु" (१३।२१) उसका स्पष्टीकरण भी हो जाना जरूरी था कि यह बात कैसे होती है । इस अध्यायमे हरेक पदार्थका विश्लेषण करके बुरे-भले सभीको तीन गुणोका ही रूप बता दिया है । यह बात भी है कि ये तीनो ही गुण बन्धनमे डालनेवाले है । फलत सभी पदार्थ आसानीसे बन्धनकारी सिद्ध हो गये । आखिर गुण तो रस्सीको