चौदहवाँ अध्याय ८०७ या खयाल है वही गर्भाधान है। उसीके बाद प्रकृतिसे गुण-विस्तारके द्वारा सृष्टि फैलती है। यह बात गुणवादमे वखूबी समझाई जा चुकी है। इस अध्यायका प्राशय समझनेके पहले उसे पढ लेना आवश्यक है। चौथे श्लोकतक तो भूमिकाके रूपमे यही बात कही गई है। उसके बादके पाँच (५-६) श्लोकोमे गुणोके निजी स्वभाव और काम बताके अनन्तर ६ (१०-१८) श्लोकोमे यह बताया गया है कि इन तीनो गणोकी आपसी शर्त्तवन्दी है, जिससे एके बाद दीगरे क्रमश तीनों मुखिया होते है । मगर हर समय एक ही मुखिया और शेप दो उसीके अनुयायी होते है। किसकी नायकताकी क्या पहचान है यह भी बताया गया है। उसीके साथ किस गुणकी प्रगतिके समय शरीरान्त होनेसे मनुष्यकी क्या गति होती है यह भी कहा है । अनन्तर दो (१६-२०) श्लोकोमे इन गुणोंसे छुटकारा पानेपर ही मुक्ति होती है यह वताके शेष सात श्लोकोमे इनसे छुटकारा पानेका उपाय और छुटकारा पाये हुएकी पहचान बताई गई है। छुटकारा पाये हुएको ही गुणातीत कहा है। इन्ही सातमे पहला -२१वॉ- श्लोक अर्जुनके प्रश्नका है । क्योकि जब ऐसी बात है तो घबराके या उत्सुकतावश इनसे पिड छुडानेकी बात फौरन ही पूछ लेना उसके लिये अनिवार्य हो गया था। यह विषय ऐसा जरूरी और कामका है कि बिना पूछे ही कृष्णने इसका कहना प्रारभ कर दिया था। वे खुदवखुद इसकी महत्ता और जरूरत महसूस कर रहे थे। इसका कारण हम बताई चुके है । इसीलिये अर्जनके बिना कुछ कहे ही स्वयमेव- श्रीभगवानुवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । यज्ज्ञात्वा मुनय. सर्वे परा सिद्धिमितो गताः ॥१॥
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