पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७८८

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८०८ गीता-हृदय - इद ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता. । सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्ययन्ति च ॥२॥ श्रीभगवान कहने लगे (कि) सभी ज्ञानोमे उत्तम ज्ञान, जिसे हासिल करके सभी मुनिगण यहाँसे (देह छोडनेके वाद) परम कल्याण पा गये, मै अभी-अभी कहता हूँ, (सुनो)। इस ज्ञानका आश्रय लेनेपर मेरा स्वस्प हो जानेवाले न तो सृष्टि (के शुरू होने) पर जन्म लेते और न प्रलयमे व्यथित होते या मरते है ।१।२। मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गभं दधाम्यहम् । सभव सर्वभूताना ततो भवति भारत ॥३॥ सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय सभवन्ति या। तासा ब्रह्म महद्योनिरह वीजप्रद पिता ॥४॥ हे भारत, महत्तत्त्व गर्मित प्रकृति ही मेरी स्त्री है और मै उसीमे गर्भाधान करता हूँ। उसीसे सभी पदार्थोकी उत्पत्ति होती है । हे कौन्तेय, सभी (पशु प्रादि) योनियोमें जितनी तरहकी प्राकृतियां हैं उन सवोकी माता (वही) प्रकृति और गर्भाधान करनेवाला पिता मै हूँ ।३।४ सत्त्व रजस्तम इति गुणा• प्रकृतिसभवा । निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥५॥ हे महावाहु, सत्त्व, रज, तम यही (तीन) गुण प्रकृतिसे पैदा होते हैं (और) विकार रहित आत्माको देहमे फाँसते है ।५॥ तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । सुखसगेन बध्नाति ज्ञानसगेन चानघ ॥६॥ हे निष्पाप, उनमे भी निर्मल होनेके कारण प्रकाशक और निर्दोपी सत्त्व गुण सुख और ज्ञानमे आसक्ति पैदा करके आत्माको फंसाता है ।।