पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७९०

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८१० गीता-हृदय लोभः प्रवृत्तिरारभ. कर्मणामशमः स्पृहा । रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥१२॥ हे भरतश्रेष्ठ, रजके वढनेपर लोभ, कामम झुकाव, क्रियायोका प्रारभ, उनका लगातार जारी रहना और हायहाय ये वाते होती है ।१२। अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च। तमस्येतानि जायन्ते विवृद्ध कुरुनन्दन ॥१३॥ हे कुरुनन्दन, तमकी वृद्धि होनेपर (दिमागके सामने) अंधेरा, कामोमे झुकाव न होना, असा नी और मोह या उलटी समभा, यही वाते होती है ।१३। यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलय याति देहभृत् । तदोत्तमविदा लोकानमलान् प्रतिपद्यते ॥१४॥ जब देहधारी सत्त्वकी वृद्धिके समय मरता है तो उत्तम वाते जानने- वालोके निर्मल लोक या समाजमे ही जनमता है ।१४। रजसि प्रलय गत्वा कर्मसगिषु जायते । तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥१५॥ (इसी तरह) रजकी वृद्धिमे मरनेपर कर्ममे लिपटे लोगोमे तथा तमकी वृद्धिमे मरनेपर विवेकशून्य योनियोमे जनमता है ।१५॥ कर्मण सुकृतस्याहुः सात्त्विक निर्मल फलम् । रजसस्तु फल दुखमज्ञान तमसः फलम् ॥१६॥ सात्त्विक कर्मोंका सुन्दर, निर्मल, सात्त्विक फल बताते है, राजसी कर्मोका दु ख और तामसी कर्मोका अज्ञान -अज्ञानकी वृद्धि-फल (कहते है)।१६॥ सत्त्वात्सजायते ज्ञान रजसो लोभ एव च । प्रमादमोही तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥१७॥