पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७८९

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चौदहवाँ अध्याय ८०९ रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासगसमुद्भवम् । तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम् ॥७॥ हे कौन्तेय, रजोगुण तृष्णा एव आसक्तिको पैदा करनेवाला (और) राग रूपी ही है, ऐसा समझो। वह कर्ममे आसक्ति पैदा करके जीवात्माकों फंसाता है ।। तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहन सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥८॥ हे भारत, तमोगुण तो अज्ञानको पैदा करने और सभी जीवात्मानोको मोहमे फँसानेवाला है। वह असावधानी, आलस्य और निद्राके द्वारा ही फंसाता है ।। प्रमाद कहते है वातोका खयाल न होना, न, रखना। खयाल रहते हुए भी कर्ममे प्रवृत्त न होने को ही पालस्य कहते है। सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥६॥ हे भारत, सत्त्व सुखमे लिपटा देता है और रज कर्ममे । (परन्तु) तम तो ज्ञानको छेकके असावधानीमे ही लिपटाता है ।। रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥१०॥ हे भारत, रज और तमको दबाके-अपने अधीन करके ही सत्त्व आगे आता है। (इसी तरह) सत्त्व एव तमको दवाके रज और सत्त्व तथा रजको दबाके तम (आगे आता-बढता है)।१०। सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते । ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥११॥ जव इस शरीरके सभी द्वारो-इन्द्रिय-छिद्रो-से अँधेरा हटके ज्ञान पैदा होता है तभी सत्त्वकी वृद्धि जाने ।११।