८१३ चौदहवां अध्याय यही है दूसरे प्रश्न, 'गुणातीतका आचरण कैसा होता है' का उत्तर । आ का २६वॉ श्लोक तीसरेका उत्तर है। तीसरेमे इसका उपाय पूछा था। मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥२६॥ जो कभी भी न डिगनेवाली भक्तिके ही रास्ते मेरा सेवन करता है वही इन गुणोसे बखूबी पार पाके ब्रह्मरूप हो जाता है ।२६। ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥२७॥ क्योकि अहम्-यात्मा--ही अविनाशी, निर्विकार, नित्य धर्मस्वरूप और वरावर वने रहनेवाले सुख रूपी ब्रह्मका आधार है ।२७। तैत्तिरीय उपनिषदकी ब्रह्मानन्दवल्लीके शुरूमे ही लिखा है कि सत्य एव ज्ञानरूप ही ब्रह्म है और है वह अनन्त । जो उसे गुफाके भीतर विस्तृत आकाशमे रहनेवाला जान लेता है उसके सभी मनोरथ एक ही साथ ज्ञानरूपी ब्रह्मके स्पमे पूरे हो जाते है,-"सत्य ज्ञानमनन्त ब्रह्म । यो वेद निहित गुहाया परमे व्योमन् । सोऽश्नुते सर्वान्कामान्सह । ब्रह्मणा विपश्चितेति ।" इसके बाद उस गुफाका, जिसमें विस्तृत आकाग है, निस्पण गुरू हुआ है । सक्षेप यही है कि अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और प्रानन्दमय नामक कोपोका ही वर्णन वहाँ विस्तारके साथ गुफाके रूपमे पाया जाता है । तलवारके म्यानको कोष कहते है । जिसके भीतर कोई चीज छिपी हो, छिपाई जा सके असलमे कोष वहीं वहा जाता है। रेगमका कीडा अपने वनाये ही रेशमके कोयेके भीतर छिप जाता है। वह निकाला न जाय तो मर भी जाता है। कोगेको सद भी काटके निकल जाता है। उन कोयेको कोगा कहते है और यह योगा मी कोप गब्दका बिगता रूप है । प्रात्मा भी स्थूल, सूक्ष्म
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