८१४ गीता-हृदय और कारण इन तीन शरीरोके भीतर छिपी है। एके बाद दीगरे उसपर पाँच म्यान चढे है । स्थूल शरीरको ही अन्नमय कोष कहते है । सूक्ष्म या लिंग शरीरके भीतर पाँच प्राण, दस इन्द्रियाँ और मन, बुद्धि मिलाके कुल सत्रह पदार्थ माने जाते है। इनमें पाँच प्राणोका प्राणमय, मन और कर्मेन्द्रियोका मनोमय और बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियोका विज्ञानमय, ये तीन कोप है। अविद्या या अज्ञानको ही कारण शरीर और आनन्दमय कोष कहते है। यह ससार अज्ञानमूलक ही तो माना जाता है। इस तरह इन्ही पाँच कोपोके भीतर जो आत्मा उसीका वहाँ उल्लेख है। उसे सत्त्य, ज्ञान और प्रानन्दस्प कहा है । अन्तमे ब्रह्मको आनन्दमय कोपका अन्तिम भाग या पुच्छ स्थानीय मानके "ब्रह्म पुच्छ प्रतिष्ठा" ऐसा लिखा है। असलमे इन कोषोको पक्षीका आकार देके पूंछकी जगह ब्रह्मको माना है । पूंछके द्वारा ही पक्षीको पकडनेसे यहाँ मतलब है । ब्रह्मको पकडनेसे ही ये पाँचो कोप पकडे जा सकते है, यही कहना है। इसीलिये शुल्मे उसी ब्रह्मात्मासे आकाश आदिके द्वारा इन सवोकी उत्पत्ति लिखी गई है, "तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाग नभूत" आदि । इस श्लोकमे हमारे जानते यही बात लिसी है । कृष्णका कहना है कि 'अहम्' ही अर्थात् अात्मा ही तो ब्रह्मकी भी प्रतिष्ठा है, मूलाधार है । यदि ब्रह्मका पता लेना है, उसे पकडना है तो आत्माको ही पकडनेसे वह मिल सकता है, पकडा जा सकता है। इससे पहलेके श्लोकमे यह कहा है कि कभी न डिगनेवाली भक्तिके द्वारा ही जो मेरा यानी अात्माका सेवन करता है वही इन तीनो गुणो से-ब्रिगुणात्मक समारसे--पार जा सकता है। उनपर गायद किसीको खयाल हो कि कृष्ण अपनी या आत्माकी भक्ति क्यो कहते है और ब्रह्मकी क्यो नही बताते ? क्योकि वही तो सबका मूला- धार है और उसीके जाननेने यह भव-जाल छूटता है । उमीका जवाब इस यन्तिम ग्लोकमे है। कहते है कि असल चीज तो 'अहम्' है, आत्मा 1 -
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