पन्द्रहवाँ अध्याय यह तो हमने पहले ही कहा है कि पन्द्रहवाँ अध्याय मिलाजुला है। इसमे कुछ तो ससारका ही, इस सृष्टिका ही विवेचन-विश्लेषण है। कुछ ज्ञानकी बाते भी है। आत्माकी जानकारीके लिये यत्लोकी चर्चा तथा दूसरे उपाय प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूपमें कहे गये है। इसलिये पिछले और अगले अध्यायोकी सन्धिके रूपमे इसका यहाँ आ जाना उचित ही है। सचमुच यदि देखा जाय तो शुरूके दम श्लोकोमे किसी न किसी रूपमें सृष्टिके निरूपणकी प्रधानता है। फिर “यतन्तो योगिन" आदि ग्यारहवें श्लोकसे ज्ञानके साधनोकी ही बात प्रधानतया पाई जाती है । "द्वाविमौ" आदि अन्तके पाँच श्लोकोमे तो यह बात आई ही है। यदि उनसे पहलेके श्लोकोमें विराट्की कुछ बातें आ गई है, तो एक तो वे चिन्तन और यत्नके साधनके रूपमे ही आई है। दूसरे, यही तो आखिरी बार उनका उल्लेख है। या यो कहिये कि प्रकारान्तरसे उनके उपसहार द्वारा उनसे विदाई है। चौदहवें अध्यायके अन्तमें जो आत्माको सवका आधार या प्रतिष्ठा कह दिया है उससे आनन्दवल्लीवाली बात सामने आ जाती है, जिसमें इस भौतिक सृष्टिके शरीर आदिके निर्माणका उल्लेख है । उसीके साथ-साथ यह सृष्टि भी दिमागमे खामखा आ जाती है। उसीका जिक्र पन्द्रहवेके शुस्मे ही है । एक वात और भी है। यदि गुणोसे या त्रिगुणात्मक ससारसे । पार जाना है, पार पाना है, तो क्या किया जाय यह जो प्रश्न उठा था, उसका उत्तर यही दिया गया है कि आत्मामें ही लग जायो । वही ब्रह्मका भी आधार है, नीव है, प्रतिष्ठा है। इससे साफ हो जाता है कि शरीरके भीतर ही उसे ढूंढना होगा । एतदर्थ क्रमश भीतर या नीचे जाना होगा।
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