चौदहवाँ अध्याय ८१५ है। उसीके जाननेसे सब कुछ जाना जा सकता है। योही ब्रह्मको कहाँ ढूँढा जाय ? और इस बातमे उनने तैत्तिरीयकी उस आनन्दवल्लीको ही लिया है जिसमे आत्माको ब्रह्मरूप कहते हुए और यो ब्रह्मको लापता या परोक्ष--"तस्मात्"-बताते हुए आत्मासे ही सृष्टिका पसारा माना है । अन्तमे सबकी प्रतिष्ठा या नीव ब्रह्मको कहके उसे आत्मस्वरूप ही कहा है । "आनन्द ब्रह्मणो विद्वान्"के द्वारा आनन्दरूप भी कह दिया है। इसीसे कृष्णने कह दिया कि सवकी प्रतिष्ठा या नीव तो "अहम्" है, आत्मा है। यहाँ 'अहम्' कितना महत्त्वपूर्ण है। इसमे कितनी खूबी और सुन्दरता है। यदि आनन्दबल्लीको देखा जाय तो वहाँ धर्मके रूपमे जाने कितनी ही चीजे कही गई है। मगर ब्रह्मात्माका जो असली स्वरूप सत्त्य, ज्ञान और आनन्द है, कृष्णने इन्ही तीन धर्मोको पकडा है । यही जगत्के धारण करनेवाले है । इसीलिये धर्म है । पचदशीमे विद्यारण्यने इनकी यह खूबी समझाई है । इनमे सत्त्यको "अमृतस्याव्ययस्य" पदोसे, ज्ञानको "शाश्वतस्य धर्मस्य" पदोसे और आनन्दको "सुखस्यैकान्तिकस्य" पदोसे कह दिया है । धर्म है यो तो सभी । फलत सभीके साथ 'धर्मस्य'को लगा भी सकते है। मगर नमूनेके रूपमे एकको ही कहा है । इस अध्यायके गुणातीत प्रकरणमे ही दो बार सम और चार बार उसी अर्थमे तुल्य शब्द आये है। यहाँ भी आत्मज्ञानीकी ही समदृष्टि बताई गई है। इस अध्यायका विषय तो स्पष्ट है। इति श्री० गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥ श्रीम० जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उसका गुणत्रय-विभाग- योग नामक चौदहवाँ अध्याय यही है।
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