पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८०

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सांख्य और योगमें अन्तर हुए भी हम इन्हे समान इस तरह बना सकते है कि दिल-दिमाग पर इनका कोई खास असर न होने दे। अध्यात्मवाद या वेदान्तका यह अटल सिद्धान्त है कि सुख-दु.खके कारण बाहरी पदार्थ नहीं है। हम अपने दिल दिमागमें उन्हे जो स्थान देते या उनका जैसा स्वरूप खडा करते है तदनुसार ही वे सुख-दुख आदिके कारण बनते है और नही भी बनते है। इन्हीको मानसिक या मनोराज्यके पदार्थ कहते है । दृष्टान्तके लिये किसी स्त्रीको ले सकते है । वह तो एक ही प्रकारकी होती है-उसका बाहरी रूप तो एक ही होता है। अब यदि वही भली या बुरी हो या सुख-दुख पहुँचानेवाली मानी जाय तो सभीको उसके करते समान रूप से ही सुख या दुख होना चाहिये । मगर ऐसा तो होता नही। एक ही स्त्री किसीके लिये सुखद, किसीके लिये दुखद और किसीके लिये दोनोमे एक भी नहीं होती। जो पुरुष उसे बहन, बेटी या माता मानता है उसकी कुछ और हालत होती है, जो उसे स्त्री मानता है उसकी दूसरी ही और जो उसकी तरफसे निरा उदासीन या लापर्वा है उसकी तीसरी ही दशा होती है। पहली दो हालतोमे राग या द्वेष या प्रेम और जलनकी जो बाते पाई जाती है। वह तीसरी दशा मे कतई लापता है। वेश्या, धर्मपत्नी और माताके बाहरी रूपमें कोई भी अन्तर नहीं होता है। एक ही स्त्री किसीकी मा, किसीकी पत्नी और किसीके लिये वेश्या भी परिस्थितिवश हो सकती है। इसीसे वह आरामदेह या तकलीफदेह बन सकती है। सो भी एक ही समयमे किसीको आराम देनेवाली और किसीको तकलीफ देनेवाली। क्यो ? इसीलिये न, कि पत्नी, वेश्या, माता, बहन आदिके रूपमें एक ही स्त्रीकी जुदा-जुदा कल्पना अलग-अलग लोग अपने मनोमें कर लेते है ? और जो विरागी या मस्तराम ऐसी कोई भी कल्पना नही करके लापर्वा रहता है उसे उस स्त्रीसे सुख या दुख कुछ नहीं होता। इसलिये सिद्ध हो जाता है कि किसी भी पदार्थका बाहरी