पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८१

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. गीता-हृदय रूप कुछ नहीं करता। किन्तु उसका मानसिक रूप जैसा खडा किया जाता है तदनुसार ही वह सुख-दुःखादिका कारण बनता है-उसे वैसा बनना पडता है। इसीलिये ३८वे श्लोकमे गीताने इसकी जड ही काट दी है। उसने कह दिया है कि अपने दिल-दिमागपर जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख दुखका असर होने ही न दो, दिल-दिमागको यह मौका ही न दो कि इन चीजोका रूप अपने भीतर खडा कर सकें, ऐसा न होने पाये कि दिल-दिमाग- की स्वाभाविक एकरसता, गभीरता और शान्तिको, ये सभी अपनी छाया और अपना प्रतिबिम्ब उसपर डालके, भग करें, विगाडें । फिर तो पो बारह है, फिर तो सब कुछ ठीक है, फिर तो पाप-पुण्यकी जड ही कट जाती है। पाप-पुण्यके वाप तो ये मानसिक रूप ही है, चीजोका मानस पटल पर पड़ा हुआ असर और प्रतिविम्ब ही है, छाया ही है । इस प्रकार अध्यात्मवाद और वेदान्तके सिद्धान्तके ही प्राधारपर कर्म करनेकी वातका प्रतिपादन पूरा किया गया है। क्योकि जब आत्मा निर्विकार और निर्गुण है, निर्लेप और अजर-अमर है तव तो मानसिक कल्पनाके ही चलते वह भटकती है और पाप-पुण्यमे पडती है, जैसे जगलमे भटक जानेवाला काँटे-कुशोमें विंधता या चोर डाकुओसे लुटता है । और जव वही चीज नही रही, जव मानसिक समता (balance) विगहने न पाई, तो फिर खतरा ही कहाँ रहा? अव विचार पैदा होता है कि जिस समताका उल्लेख यहां किया गया है उसीका जिक्र ागे कर्मयोगके प्रकरणके ४८वे श्लोकमे भी आया है। यहाँ भी "सुखदु खे समे कृत्वा" है और वहाँ भी "सिद्धयसिद्धयो समो भू- त्वा" लिखा है। ऐसी दशामे दोनो एक ही चीज हो जाती है। फिर अध्या- त्मवादके प्रकरणके अन्त और योगके आरभके पहले जो ३६ श्लोकमें वही तपाकके साथ कहा है कि "तत्त्वज्ञानकी बात कह चुके अव योगकी वात