पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८०२

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८२२ गीता-हृदय अनुसरण भी अच्छी तरह हो गया है। पहलेकी सारी बाते सुनने और गुणातीत अवस्थाको जाननेके बाद जो एक प्रकारकी किंकर्त्तव्य-विमूढतासी अर्जुनको और दूसरोको भी हो सकती थी कि कहाँसे कैसे इन गुणोको काटना शुरू करे, वह भी इस प्रकार दूर हो गई । उसे खयाल करके ही तो कृष्णने बिना पूछे ही यह कहना शुरू भी कर दिया । चौदहवें अध्यायके अन्तमे यह कहा है जरूर कि आत्माकी भक्ति करे । मगर वह तो आसान नही । मनको बाहरसे रोकना जो पडेगा। यह रोक किस चीजसे कैसे शुरू करे, यही तो सबसे बडा सवाल था । ऐसी वातका मालूम हो जाना जरूरी था जहाँसे श्रीगणेश करते । कृष्णने इस वृक्षको, इसकी जडोको और काटनेके हथियारको भी वताके सारी समस्या ही हल कर दी। इस तरह गुणोके निरूपणसे भी आसानीसे फायदा उठाया जा सकता था। क्योकि जब सभी चीजें बन्धक है, खतरनाक है, तो उनसे मनको हटानेमे दिक्कत वैसी न होगी जैसी पहले होती। इन्ही सब विचारोको मनमें रखके- श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमघ शाखमश्वत्यं प्राहरव्ययम् । छन्दासि यस्य पर्णानि यस्त वेद स वेदवित् ॥१॥ श्रीभगवानने कहा (कि) ऊपर जिसकी जडे और नीचे शाखायें हो तथा वेदमत्र जिसके पत्ते हो ऐसे (ससाररूपी) पीपलवृक्षको सदा रहनेवाला कहा गया है । (मगर) उसे जो यथार्थ रूपमें जान जाता है वही वेदज्ञाता है ।। अघश्चोवं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला. । अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुवन्धीनि मनुष्यलोके ॥२॥ (दरअसल) उसकी गाखायें नीचे-ऊपर (सर्वत्र) फैली है (जो)