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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८०३

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पन्द्रहवा अध्याय ८२३ ततः गुणोके चलते खूब वढी है और विषय ही जिनकी कोपले है। (उसकी) जडे भी बहुत गहराईमे जाके खूब फैली हुई है (और) इस दुनियामे कर्म करनेमे (चस्का पैदा करके लोगोको उसमे) लगाती है ।२। न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नातो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । अश्वत्यमेनं सुविख्ढमूलमसगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥३॥ पद तत्परिमागितव्यं यस्मिन्गता न निवर्त्तन्ति भूयः तमेव चाद्य पुस्प प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥४॥ (लेकिन इसका जैसा सनातन और दृढ) रूप (कहा जाता) है वैसा (तो विचारनेपर) दीखता नहीं और न इसके आदि, अन्त (और) मध्य (का ही पता चलता है)। (फिर भी) जिसकी जडे बहुत ही मजबूत हे उम इस अश्वत्थ वृक्षके वन्धनोको (वैसे ही) मजबूत वैराग्य-आसक्ति- त्याग-स्पी गस्त्रसे काटके-ससारसे वैराग्य प्राप्त करके--अनन्तर उस पदका अन्वेपण करना चाहिये जहाँ जानेपर फिर वापिस आना- जन्म-मरण---नहीं होगा। 'हम उमी ग्रादि पुरुष-परमात्मा--की मरण पाये है, जिससे यह पुरानी मृप्टि पैदा हुई', (इसी प्रकार वह अन्वेषण करना चाहिये) १३१४१ निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा । द्वन् विमुक्ताः सुखदु खसर्गच्छन्त्यमूटाः पदमव्ययं तत् ॥५॥ अभिमान योर मोहन रहिन, चामपितके दोपमे नरी, प्रात्मामे निस्तर लगे हुए, गभी कामनायोगे गुन्य, गुपदुम मगक द्वन्होने छुटकाग पाये पूनानी ही उन अग्निागी पदको पाने है । न तदासयते सूर्यो न माशापो न पावकः । पद् गत्या न निवर्तन्ते तद्वाम परमं मम ॥६॥ नको पारो नांगप्रयाग जाना है, न नन्द्रमा का और न अन्निका ही