८२८ गीता-हृदय देदीप्यमान एव सूर्य, चन्द्र आदिको भी प्रकाश देनेवाला पहले ही कहा गया है। इसलिये वही से शुरू करके पृथ्विीमे आते है । वहाँसे जठरा- नलमे जाके शरीरमे घुसते है और अन्तमे हृदयमे प्रवेश करके उस आत्मा- को देखते है । योगी लोग भी यही रीति अपनाते है । योगसूत्रोमे धारणाके प्रसगसे ये बाते आई है। यदादित्यगत तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥१२॥ गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधी सर्वा. सोमो भूत्वा रसात्मक ॥१३॥ अह वैश्वानरो भूत्वा प्राणिना देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्त पचाम्यन्न चतुर्विधम् ॥१४॥ सर्वस्य चाह हृदि सन्निविष्टो मत्त स्मृतिर्ज्ञानमपोहन च । वेदश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५॥ सूर्यमे रहनेवाला जो तेज समस्त ससारको आलोकित करता है, जो (तेज) चन्द्रमामे और जो अग्निमे है, वह (सभी) तेज मेरा ही जानो। पृथ्वीमे प्रवेश करके अपने बलसे मै ही पदार्थोको धारण कर रखता हूँ । (नही तो पृथ्वी धंस जाती, टूट जाती और पहाड वगैरहका भारी बोझ वर्दाश्त कर न पाती ।) रसमय चन्द्रमा बनके सभी अन्नादि औषधियोको पुष्ट करता हूँ। मै ही जठरानल होके प्राणधारियोके शरीरमे रहता और प्राण तथा अपान (की धौकनी)से प्रदीप्त होके चार प्रकारके खाद्य पदार्थोको पचाता हूँ। मैं ही सबोके हृदयोमे प्रविष्ट हूँ। मुझीसे (लोगो- को पदार्थोके) स्मरण और ज्ञान होने है, विस्मृति और भूल होती है। मैं ही सभी वेदोके द्वारा जाना जाता हूँ। वेदान्तका बनानेवाला एव वेदवेत्ता भी मै ही हूँ।१२।१३।१४।१५।
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