पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८०९

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पन्द्रहवाँ अध्याय ५२९ . यहाँ जो चार प्रकारके अन्न कहे गये है उन्हे भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य कहते है । जिनके खानेमे दाँतोसे काम लिया जाय ऐसी पूडी, पूा, रोटी, चबेनी वगैरह भक्ष्य है। जिनमे दाँतोसे काम लेनेकी जरूरत न हो ऐसे दूध, दही, हलवा आदि भोज्य है । जवानसे ही जो चाटे जायँ वही कढी, चटनी आदि लेह्य है । जिन्हे चूसा जाय ऐसे आम, ऊख आदि चोष्य है । "अयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्त पुरुषे येनेदमन्न पच्यते” । (वृहदा० ५।६।१) आदि वचनोमे जठरानलको वैश्वानर कहा है। इसी प्रकार , येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा" (यजु० ३२।६) “स दाधार पृथिवीम्” (यजु० २५।१०) मे पृथ्वीका धारण करनेवाला परमात्मा ही कहा गया है । उसीसे यहाँ तात्पर्य है। इस अध्यायमे शशाक और सोमको दो कामोके लिये उल्लिखित देखके एकाएक खयाल हो जाता है कि सोम और शशाक (चन्द्रमा) दो पदार्थ तो नही है ? दोनोमे कुछ अन्तर तो नही है ? आगेके तीन (१६-१८) श्लोक जीवात्मा और परमात्मामें कितना फर्क है यही बात बताके उसी अन्तरको दूर करनेके लिये अर्थत ज्ञानकी आवश्यकता सुझाते है । क्योकि यदि आत्माको ब्रह्मका रूप ही मान ले तो फिर सारे यत्न ही बेकार हो जायेंगे। कोई भी क्यो आत्म- ज्ञानार्थ ध्यान, समाधि या श्रवण, मनन आदि करेगा ? ऐसी दशामे गीतोपदेशकी भी व्यर्थता हो जायगी। द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१६॥ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥७॥ यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥१८॥