पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८१५

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सोलहवां अध्यय ८३५ त्तियो पर गौर करे, तो देखेंगे कि जो बाते यहाँ कही गई है वह अधिकाश या रूपान्तरमे सबकी सब वही है जिनका उल्लेख "अमानित्वमदभित्व" (१३।७-११) आदि श्लोकोमे हुआ है। सख्या बढ जाने पर खामखा कुछ नई चीजे भी नजर आयेगी ही। जहाँ पहले कुल इक्कीस ही बाते कही थी तहाँ अब पूरी सत्ताईस आ गई ! एक तो इसीसे अन्तर हो गया। दूसरे, गीताका काम हूबहू दुहराना या 'मक्षिकास्थाने मक्षिका' तो करना है नही। इसका तो काम है प्रकारान्तरसे उन्ही बातोको इस तरह कहना कि सुननेवालेको ऊव न हो सके और वाते दिलमें बखूबी वैठ भी जाये। आखिर कठिन तो हूई। इसीलिये दिलमे उनका जमना आसान नही है। जरूरत भी उन पर प्रकारान्तरसे जोर देनेकी इसीलिये पडती है। इसे यो समझे। पतजलिने योगसूत्रोमें जिन यमो और नियमोको गिनाया है वह योगके लिये नीव है, दीवार है। उनके बिना योगका महल खडा होई नही सकता । इसीलिये योगके आठ अगोमे पहले दो यही यम- नियम ही है । हम पहले ही उस सूत्रको लिख भी चुके है । यह योग है भी क्या यदि गीताकी वह समाधि या ध्यान नही है जो ज्ञानकी पूर्णताके लिये अनिवार्य माना गया है और जिसका ब्योरेके साथ गीताने वर्णन किया है ? इसीलिये यम-नियम ही ज्ञान-प्राप्तिके मूल साधन है । दोनो ही पाँच-पाँच प्रकारके माने जाते है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय--चोरी न करना--ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह या पदार्थों और लवाजिमका न जमा करना यही पाँच यम है, "अहिसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा (२।३०) । इसी प्रकार शौच--शुचिता या पवित्रता--सतोष, तप, स्वाध्याय-सद्ग्रथोका अभ्यास और ईश्वर-भक्ति यही नियम है, "शौच सन्तोषतप स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा” (२।३२) । इनका जो कुछ विवरण भाप्य, टीकाप्रोमे तथा स्मृतियोमे दिया गया है उसे पढके "