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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८३

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गीता-हृदय जहां पागका सम्बन्ध ही नहीं वहां उसकी लपट, गर्मी या आंच आयेगी कैसे? और ३६वें श्लोक वाले शब्द ? वह तो कुछ और ही कहते है। वह तो कहते है कि “ऐसा होनेपर कर्मोमे जो बन्धकता या वाँधने और फंसानेकी शक्ति है वही खत्म हो जायगी।" मतलब यह है कि ये शब्द आत्माके अकर्तृत्व आदिका खयाल न करके कर्मके स्वरूपका ही खयाल करते है इनकी नजर उसी तरफ है । वह कर्मों में फल देनेकी ताकत और शक्तिको मानके ही ऐसा उपाय सुझाते है कि वह शक्ति बेकार हो जाय, मारी जाय । जिस तरह भुने जानेपर बीजमें अकुर पैदा करनेकी ताकत नही रहती, खत्म हो जाती है, ठीक उसी तरह कर्मको भी भून देनेकी बात ये वचन बताते है । आत्मा निर्गुण है, कर्तृत्वशून्य है, निर्लेप या कि सगुण, कर्तृत्वयुक्त और लिपटनेवाली-लिपटानेवाली, इस खोद विनोदमें वे नही पडते। इस गहरे पानीमे वे उतरना नही चाहते- उतरते नही। प्रात्मा चाहे कुछ भी क्यो न हो, वह करनेवाली ही क्यो न हो, फिर भी ऐसी युक्ति की जा सकती है कि कर्म ही भून दिये जायें और सब पंवारा ही खत्म हो जाय । अतएव यही कहना कि है कि इन वचनोकी दृष्टि पहलेवालोसे ठीक उलटी दिशामें है-दूसरे किनारे है। यदि इसी श्लोकके बादका ४०वाँ श्लोक देखे तो वहाँ भी "प्रत्यवायो न विद्यते"-"पाप होता ही नहीं, रहता ही नहीं"-ऐसा ही लिखा है। इससे भी यही वात निकलती है कि योगवाली हिकमत या योगकी जानकारीसे पाप पैदा होने पाता ही नही-उसका अस्तित्व ही नही रह जाता---उसकी सत्ता होने ही नहीं पाती। फिर वह जायेगा किसके निकट ? जो चीज हई नहीं, उससे किसीको खतरा ही क्या? इस प्रकार साख्य और योगकी विशेषता सिद्ध हो जाती है। दूसरी वात भी है । ३८वे श्लोकमे युद्धरूप क्रिया या कामके बारेमें