सांख्य और योगमें अन्तर ७१ समत्वबुद्धिकी बात नही कही गई है। किन्तु उसके फलोके ही बारमे। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख तो युद्धके परिणामस्वरूप ही क्रमशः एकके बाद दीगरे होते है और उन्हीके असरसे दिल-दिमागको वचा रखनेको कहा है। मगर ४८वे श्लोकमे जो सिद्धि-असिद्धिमे समता या एकरसताकी बात कही गई है, वह कर्मोके ही बारेमें है और प्रकृतमे युद्धको ही लेकर है । लडाई अन्ततक हो या बीचमे ही रह जाय, खत्म हो जाय स बातकी पर्वा कतई न हो यही योग है । इस बातका दिलपर जरा भी असर न हो, यही चीज वहाँ कही गई है। इस प्रकार जहाँ पहली खूवीमे कर्मको भूननेकी बात है, तहाँ इसमे उसका कोई भी प्रभाव दिलपर न आने देनेकी बात है। इसीके फलस्वरूप कर्म भुने जायँगे। यह नियादी चीजको ही पकडता है । कर्मोका ही असर न होने दिया जाय तो योग हो गया और उनके नतीजोको ही पास- में फटकने न दिया गया तो सांख्य हो गया। तीसरी बात भी है जिससे योगका निरूपण अलग किया गया है। यह ठीक है कि कर्मकी सिद्धि-असिद्धिकी लापर्वाहीको ही योग कहते है । मगर सवाल तो यह है कि वह हो क्योकर ? जरा देखिये तो सही यह कितनी कठिन चीज है । फलकी इच्छाको स्थान न देना, फलकी ओरसे लापर्वा होना, कर्ममे आसक्तिका न होना और कर्मत्यागमे आग्रह न रहना-ये चार चीजे बताई गई है। इनके बताने और इनपर अमल करनेका सीधा मतलब यही है कि हमारी दृष्टि कर्मके ऊपर इस हद्दतक बंध गई हो, हमारे मनकी एकाग्रता (concentration) कर्मके ऊपर इस तरह पूर्ण और इतनी पक्की हो गई हो कि वह फलेच्छा और फलकी तो बात ही जाने दीजिये, वह तो जुदी चीजे है, कर्मके त्याग और उसके करनेकी ओर भी न जा सके । क्या कमाल है । कैसी लासानी एकाग्रता- की बात है ! किन अलौकिक मनोयोगका निरूपण है ! मन कर्ममे 7
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८४
दिखावट