पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८३४

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८५४ - हँसमुखपन, जबानपर काबू, मनपर नियत्रण (और) निष्कपट व्यवहार यही मनकी तपस्या कही जाती है ।१४।१५।१६। श्रद्धया परया तप्त तपस्तत्त्रिविध नरैः। अफलाकाक्षिभिर्युक्तः सात्त्विक परिचक्षते ॥१७॥ सत्कारमानपूजार्थं तपो दभेन चैव यत् । क्रियते तदिह प्रोक्तं राजस चलमध्रुवम् ॥१८॥ मूढनाहणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । परस्योत्सादनाथ वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥१६॥ पहले दर्जेकी श्रद्धासे फलाकाक्षारहित, मनको एकान किये हुए मनुष्योके द्वारा किये गये उन तीनो ही प्रकारके तपोको सात्त्विक कहते है । मौखिक बडाई, इज्जत और पूजाके लिये और दभसे भी जो तप किया जाता है, उस क्षणभगुर और अनिश्चित फलवाले तपको यहाँ राजस कहा है । जो तप नासमझीसे ऊँटकी पकडकी तरह हठात् अपनेको (केवल) पीडा देके ही या औरोके विनाशके लिये किया जाता है उसे तामस कहा है ।१७।१८।१६। दातव्यमिति यद्दान दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तद्दान सात्त्विक स्मृतम् ॥२०॥ यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्ट तहान राजस स्मृतम् ॥२१॥ प्रदेशकाले यदानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥२२॥ देना चाहिये ऐसा समझके ही जो दान उपकारके वदलेमे न होके (जरूरतकी) जगह (जरूरतके) समय दानके योग्यको ही दिया जाता है उसी दानको सात्त्विक माना है। जो दान उपकारके बदलेमे या किसी