सत्रहवाँ अध्याय प्रयोजनसे बहुत रो-गाके दिया जाता है उस दानको राजस कहा है । (जो दान बिना जरूरतके और इसीलिये अनुचित) देश, काल और पात्रमे विना सत्कारके ही तिरस्कारपूर्वक दिया जाता है उसे तामस कहा है ।२०। २११२२ आगे वढनेके पूर्व यज्ञ, तप और दानके सम्बन्धमे दो-एक बाते कह देनी है । यह तो मोटी बात है कि दानके लिये देश, काल, पात्रका होना जरूरी है । देशसे मतलब खामखा काशी, अयोध्या आदि तीर्थोसे, कालसे मतलव ग्रहण आदिसे ही और पात्रसे अभिप्राय ब्राह्मण, साधु आदिसे ही नहीं है । जहाँ पानी, औषधालय, स्कूल आदिके बिना बहुत हर्ज हो वहींपर कूओं, तालाब, अस्पताल, स्कूल आदि बना देना देशमे दान हुआ। इसी तरह जाडेके दिनोमे या अकाल वगैरहके समय भूखे-नगोको वस्त्र, अन्नादि देना कालका दान हो गया । अगर हमारे पास एक ही सेर अन्न है जिसे लेनेको एक ओर दो-चार भूखे और दूसरी ओर साधु-फकीर या पुजारीके नामपर मुश्चड लोग खडे है, तो दानके पात्र वहाँ भूखे ही होगे, न कि चड-मुचड लोग । साराश, जहाँ जिस समय जिन लोगोको कुछ भी देनेसे अधिकसे अधिक लाभ समाजका या व्यक्तियोका हो वही दान देश, काल, पात्रका दान है। लेकिन इन यज्ञादिके वारेमे जो असल वात विचारनेकी है वह तो दूसरी ही है । पहले श्रद्धाको सात्त्विक, राजस, तामस तीन प्रकारका कहा है। मगर जब नमूनेके लिये यहाँ यज्ञादिको दिखाने लगे तो कही तो श्रद्धाका नाम केवल सात्त्विकमे ही लिया है, जैसा कि बीचमे तपमे स्पष्ट ही देखा जाता है और कही-यज्ञ तथा दानमे -वह भी नहीं किया है। बल्कि उसकी जगह यनमे शास्त्रीय विधिका ही नाम लिया गया है। इनीके साथ यह भी देखा जाता है कि सात्त्विक तथा राजस यज्ञोको छोड केवल तामसमे ही यह कह दिया कि वह श्रद्धासे रहित होता है और गास्त्रीय
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