सत्रहवाँ अध्याय ८५७ इसी सिलसिलेमे एक बात और भी पाई जाती है। जो यज्ञ और तप दभपूर्वक या महज दिखावटी होते है उन्हे राजस कहा है। दोनो हीमे दभ शव्द पाया जाता है। मगर यदि पाँचवे तथा छठे श्लोकोको देखे तो दभपूर्वक किया गया तप आसुरी माना गया है । उसीको शास्त्र- विधि-शून्य भी कहा है। सात्त्विक, राजस, तामस कोंसे उसे जुदा भी माना है, जैसा कि प्रसग देखनेसे ही स्पष्ट हो जाता है। उसके विपरीत यहाँ ये दोनो एक तो राजस हो गये। दूसरे शास्त्रीय विधिके वाहर है यह तो लिखा गया ही है। बल्कि तामस यज्ञको विधिहीन कहनेसे ही यह राजस विवि-युक्त अर्थत सिद्ध हो जाता है । उसीका साथी तप भी वैसा ही माना जाना चाहिये । सोलहवे अध्यायमे यह भी देखी चुके है कि दभवाले यज्ञोको ग्रासुरी कहा है। इस तरह पूर्वापर-विरोधके आ जानेसे और भी दिक्कत पैदा हो गई है। लेकिन दरअसल बात ऐसी है नही। इसका सबसे बडा प्रमाण यही है कि जब उपसहार या अन्तमे श्रद्वारहित यज्ञ, तप, दानोका- क्योकि हुत या हवन तो यज्ञमे ही आ जाता है-नाम लेके स्पष्ट ही उन्हे चीपट बताया है, तो इससे निर्विवाद हो जाता है कि उससे पहले सर्वथा श्रद्धाशून्य कर्मोका जिक्र हई नही। क्योकि यह तो सामान्य रूपसे सभी प्रकारके ही यज्ञो, दानो, तपोके बारेमे कहना है। फिर वीचमे किसी एकाधका नाम लेनेका क्या मौका ? वह तो व्यर्थ ही ठहरा न ? उसकी जरूरत तो वहाँ है नही। उससे काम भी तो नही निकलता और अन्ततो- गत्वा सभी कर्मोके बारेमें "अश्रद्धयाहुत दत्त"का कहना जरूरी होई जाता है । ऐसी दगामे यदि कहीं-कहीं अश्रद्धा या गई है तो उसका आगय कदापि यह नहीं है कि उनमें श्रद्धाका सर्वया या विल्कुल ही अभाव है। किन्तु केवल यही कि श्रद्धा अधूरी है, कच्ची है। जब भोजनमे नमक कम हो तो कभी-कभी कह बैठते है कि इसमे तो नमक हई नहीं। इसी
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