गीता-हृदय तरह कहा जाता है कि आज तो हवा कतई हई नही। मगर हवा न रहे, यह तो सभव नहीं। इसलिये उसके मानी यही होते है कि कम है, बहुत थोडी है। यही बात यहाँ भी समझिये। पूरी श्रद्धा होनेपर सात्त्विक, उसमे कमी होनेपर राजस और नाममात्रकी श्रद्धा या बहुत कम होनेपर तामस यही मतलब होता है। मगर जहाँ श्रद्धा कतई हई नही वही प्रासुरी है। यही बात अन्तमे और ५, ६ श्लोकोमें भी कही गई है। असलमें दैवी और आसुरीके अलावे तीसरा दल तो हई नहीं। इसीलिये राजस यज्ञ और तपमें जो दभ आया है उससे इस अध्यायके और सोलहवेंके भी आसुरी स्वभावका मेल हो जाना उचित ही है। हमने यह बात पहले कह भी दी है। मगर यह बात हमेशा याद रखनेकी है कि आसुरी कहने और राजस, तामस श्रद्धाका नाम लेनेसे यह कभी नही मानना होगा कि राजस और तामस यज्ञादि करनेवाले श्रद्धाशून्य है । इसीलिये "अश्रद्धया हुत दत्त"वालेमें ही उनकी गिनती है। इसीलिये, ५,६ श्लोकोमे जो दभ आया है वही यज्ञ तथा तपमें भी आ गया है, जिससे ये तीनो एक ही हो जाते है-इनमे जरा भी फर्क नही है, यह समझना भी भूल है । ५,६ श्लोकोकी वात दूसरी है, निराली है और वही मिल जाती है 'अश्रद्धया हुत दत्त के साथ । न कि यज्ञ और तपके राजस तामस आदि भेद मिलते है । दभ शब्दके बारेमें तो कही चुके है कि क्यो आया है। ५,६ श्लोकोमें जो कुछ कहा गया है वह केवल अश्रद्धाकी निन्दाके ही लिये । न कि यहां उसका कोई खास प्रयोजन है । क्योकि उसमे केवल तपकी बात आती है। कितु अतवाले श्लोकमे यज्ञ, तप, दान तीतोको ही चौपट बताया है। ऐसी दशामे यदि सिर्फ निन्दा ही प्रयोजन न होके किसी खास बातका प्रतिपादन मतलब होता तो उसकी जरूरत ही क्या थी वह तो बेकार हो जाता है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि पूर्ण श्रद्धा होनेपर सभी कर्म सात्त्विक हो जाते है, फिर चाहे वह यक्ष-राक्षसोकी ? --
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