८६० गीता-हृदय ? ? . अब केवल एक ही बात रह जाती है और वह यह कि इसके बादके पांच ग्लोकोमे जो कुछ कहा गया है वह भी तो शास्त्रकी विधि ही है न किन्तु उसकी जरूरत यहाँ क्या थी जब कि श्रद्धाकी बात आई गई है ऐसा प्रश्न किया जाता है सही। फिर भी शास्त्रविधिके उल्लेखका जो प्रयोजन अभी कहा है उसके बाद तो इसकी भी गुजाइश नही रह जाती है । परन्तु यहाँ कुछ खास बात है । वात यो है कि जो लोग शास्त्रीय विधिको जनसाधारणकी पहुँचके बाहरकी चीज मानते है और इसीलिये उसे हौवा समझते है उनका भी तो खयाल गीताको करना ही है। गीताधर्म तो सर्वसाधारणके ही लिये है, खासकर यह श्रद्धावाली बात । इसलिये इस महत्त्वपर्ण प्रश्न पर गीताका ध्यान जाना अनिवार्य था और उसी ध्यानके परिणाम स्वरूप ये पाँच श्लोक है। जो लोग यह समझते हैं कि शास्त्रीय विवि बहुत बडा जाल और पँवारा है और इसीलिये उससे और उसके नामसे ही बुरी तरह घबराते है उन्हे गीताका कहना है कि तुम नाहक ही ऐसा समझके घबराते हो । देखो न, ब्रह्मवादी और मोक्षकाक्षी लोग भी इस शास्त्रीय विधिको कितनी आसान मानते है ? जो कर्म यज्ञार्थ या भगवदर्पण होते है उन्हे भी किस आसानीसे शास्त्रीय विधिसे किया जा सकता है । फिर धवरानेका क्या एक ॐकार, तत् या सत् शब्द-तीनोमें हरेक ही ऐसा है कि इसके उच्चारण मात्रसे शास्त्रविधि पूर्ण हो जाती है और अगर तीनोको मिलाके ॐतत्सत् कह दिया तब तो कहना ही क्या श्लोकोका यही आशय है और जव ब्रह्मवेत्ता, मोक्षके इच्छक या उत्तमोत्तम कर्मोके करनेवाले ही ऐसा करते है तो इसे शास्त्रीय विधि न कहें तो और कहे क्या ? आगे "विधानोक्ता" शब्द आया भी है। इस तरह गीताने मर्वसाधारणके लिये-~-उनके भी लिये जो वेद-वेदाग जान पाते नही और ऐसे ही लोग ज्यादा है-~-भी शास्त्रीय विधि सुलभ कर दी। हां, जो सवाल ? ? इन पाँच
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