पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८३९

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11 ? " सत्रहवाँ अध्याय ८५६ पूजा हो या भूत-प्रेतो की । यह बात हम पहले "येप्यन्यदेवताभक्ता (६।२३-२५) आदिमे अच्छी तरह बता भी चुके है। अगर फिर भी वैसे कर्मोमे कसर रह जाती है या उन्हे तामस और राजस कहते है तो केवल इसीलिये कि वह रास्ता, वह समझ, उन कर्मोके करनेकी सारी बुनियाद ही गलत है । यही बात “न तु मामभिजानन्ति” (९।२४) मे कही जा चुकी है। जो यह कहा गया है कि सात्त्विक यज्ञ और दानमे श्रद्धा नही पाई जाती है, उसका उत्तर साफ है । जब वह सात्त्विक तुपमें लिखी है तो शेष दोमे भी उसे समझ लेना ही होगा। इसमे कोई विशेष युक्तिकी जरूरत है नही। सभी सात्त्विकोकी एकसी बात है न यह भी तो देखते ही है कि तीनोके बारेमे फलाकाक्षा या बदलेके उपकारका खयाल करके ही करनेको लिखा है । बल्कि यज्ञ और तपमे तो "अफलाकाक्षिभि यही शब्द दोनो जगह है और जब एक जगह 'श्रद्धया से उसका सम्बन्ध है तो दूसरी जगह भी उसे मान लेना आसान है, अर्थसिद्ध है । असलमे तो प्रयोजन या फलकी इच्छाका न होना ही पूर्ण श्रद्धाकी पक्की निशानी है । ये दोनो साथ ही चलनेवाली है। इसीलिये जहाँ श्रद्धामे कमी हुई कि ,फलाकाक्षा, उपकारका खयाल, दभ आदि धीरेधीरे घुसने लगे। इसलिये यदि तपमे श्रद्धा कही भी गई है तो उसकी खास जरूरत नही है। फिर भी कही लोग ऐसा न समझ बैठे कि श्रद्धाके बिना भी सात्त्विक कर्म होते है, इसीलिये बीचमे 'श्रद्धया' लिख दिया, जो पहलेवाले यज्ञमे और वादवाले दानमे भी माना जायगा। श्रद्धा न कहके जो शास्त्रविधि कही गई है वह भी श्रद्धाका सूचक ही है। पूरी शास्त्रविधिमे तो पूर्ण श्रद्धा रहेगी ही। उसके बिना तो शास्त्रविधि कभी पूरी होई नही सकती, यह पक्की बात है। प्राचीन विद्वानो और ऋषिमुनियोने यही माना भी है।