पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८४२

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८६२ गीता-हृदय ज्ञानको तत् कहा है वह आत्मा-ब्रह्म स्वरूप ही है और इस श्लोकमे उसीकी सभावना है। ऐसा और भी पाया है । यो तो वारवार ब्रह्मको सत् कहा ही है । लेकिन "न तदस्ति विना यत्स्यात्" (१०।३६) में स्पष्ट ही ब्रह्मकी सत्ता सर्वत्र मानी गई है। उपनिषदोमें भी “ॐमितिब्रह्म" (तैत्ति० ११७), "तत्त्वमसि श्वेतकेतो" (छान्दो० ६१८-१६) तथा "सदेव सोम्येदमग्र" (६१२११) आदिमे यही वात पाई जाती है। ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध स्मृतः। ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता पुरा ॥२३॥ ॐ, तत्, सत् यही तीन नाम ब्रह्मके माने गये है और सृप्टिके प्रारभमे इन्ही तीनो (के उच्चारण)से ब्राह्मण, वेद और यज्ञ बने (भी)। २३॥ तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतप किया। प्रवर्त्तन्ते विधानोक्ताः सतत ब्रह्मवादिनाम् ॥२४॥ तदित्यनभिसंधाय यज्ञतपःक्रियाः। दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकांक्षिभिः ॥२५॥ सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते । प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द. पार्थ युज्यते ॥२६॥ यज्ञे तपसि दाने च स्थिति. सदिति चोच्यते। कर्म चैव तदर्थीय सदित्यवाभिधीयते ॥२७॥ इसीलिये ॐका उच्चारण करके ही ब्रह्मवादियोकी शास्त्रीय-विधि- विहित यज्ञ, दान, तप आदि क्रियायें हमेशा हुआ करती है। (इसी तरह) मोक्षकी इच्छावाले फलका खयाल न करके अनेक प्रकारकी यज्ञ, दान, तप रूपी क्रियाये तद्का उच्चारण करके ही करते है । हे पार्थ, किसी चीजके अस्तित्वके लिये तथा अच्छा जानेके लिये भी सत् शब्द बोला फल ,