पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८४३

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सत्रहवां अध्याय जाता है । श्रेष्ठ कर्मोमे भी सत् शब्दका प्रयोग होता ही है । यज्ञ, तप और दानमें जो निष्ठा एव दत्तचित्तता होती है उसे भी सत् कहते है। यज्ञार्थ या ब्रह्मके लिये जो भी कर्म हो सत् ही कहा जाता है । २४॥२५॥ २६१२७ । यहाँ यज्ञ, दान, तपका उल्लेख उदाहरण-स्वरूप ही है, जैसा कि पहले भी तीनका ही नाम आया है । यही प्रधान कर्म है भी। मगर तात्पर्य सभी कर्मोसे है। यह तो सभी जानते है कि दान आदि क्रियायो और उत्तम कर्मोको सत्कर्म कहते है। यज्ञादि करनेवालोको भी कहते है कि आप तो अच्छा कर्म, सत्कर्म, समीचीन कर्म करते है, ठीक करते है। उसीसे यहाँ मतलव है । अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् । असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥२८॥ (विपरीत इसके) जो हवन, दान, तप आदि श्रद्धासे नहीं किया जाता है वह असत् कहा जाता है। (इसीलिये) न तो वह मरने पर ही किसी कामका होता है और न यही पर ॥२८।। यहां यज्ञकी ही जगह हुत या हवन आया है। श्रद्धाशून्य कर्मोको अमत् कह देनेसे बिलकुल ही साफ हो जाता है कि ॐ तत्सत्का श्रद्धासे ही सम्बन्ध है। फलत श्रद्धाके विना ये किसी भी कर्ममे बोले जा सकते नहीं । श्रद्धाके हटते ही वह कर्म असत् जो हो जायगा । फिर उसमें मत् गदके प्रयोगका अर्थ क्या होगा? यह तो उलटी वात हो जायगी इन प्रकार सिद्ध हो जाता है कि अथने इति तक इस अध्याय पर श्रद्धापी छाप लगी हुई है। फिर चाहे वह मात्त्विक हो, राजस हो या तामन । नीलिये ममाप्ति-मचक मकल्प वाक्यमे भी "श्रद्धात्रयविभाग- योग ' लिया है। यहाँ जो विभाग गब्द है वह भी महत्त्वपूर्ण है और बताता है कि तीन गुणोंके बीचमे नसारके विभागकी ही तरह उन सभी ?