८७० गीता-हृदय पहले कथनके हेतुके रूपमे ही आई है कि ये यज्ञादि मनीषियोको भी पवित्र करने वाले है। इसीलिये इन्हें करना ही चाहिये । तीसरी बात छठे श्लोकमें है कि आसक्ति और फल दोनोको ही छोडके इन्हें करना चाहिये। इस प्रकार तीन वाते हो गई। साराश रूपमें पहली यह कि यज्ञ, दान, तपको कभी न छोडें । दूसरी यह कि उन्हे जरूर करे, क्योकि यह पवित्र करनेवाले है। तीसरी यह कि इनके करनेमे भी कर्मकी आसक्ति और फलकी इच्छाको छोड ही देना होगा। यही तीन तरहकी बातें त्यागको लेकर हो गई। यज्ञदानतप कर्म न त्याज्य कार्यमेव च। यज्ञो दान तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥५॥ एतान्यपि तु कर्माणि सग त्यक्त्वा फलानि च । कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चित मतमुत्तमम् ॥६॥ यज्ञ, दान, तप इन कर्मोको (कभी) नही छोडना, (किन्तु) अवश्य ही करना चाहिये। (क्योकि) यज्ञ, दान तप ये मनीषियोको भी पवित्र करते है । (फिर औरोका क्या कहना ?) (लेकिन) इन कर्मोको भी, इनमें आसक्ति और फलेच्छाको छोडके ही, करना चाहिये, यही मेरा निश्चित उत्तम मत है ।५।६। चौथे श्लोकमे जो सीधा-सादा अर्थ करके त्यागके तीन प्रकार कहे है वह ये है- नियतस्य तु सन्यास. कर्मणो नोपपद्यते । मोहात्तस्य परित्यागस्तामस. परिकीर्तितः ॥७॥ दुखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् । स कृत्वा राजस त्याग नैव त्यागफल लभेत् ॥८॥ कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन । सग त्यक्त्वा फल चैव स त्याग सात्त्विको मत ॥६॥ 1
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