पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८५१

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अठारहवां अध्याय ८७१ जो कर्म जिसके लिये तय कर दिया गया है उसका त्याग तो उचित नही (और अगर) मोहसे उसका त्याग (कर दिया गया) तो वह तामस (त्याग) कहा जाता है। शरीरके कष्टके भयसे दुखदायी समझके ही कर्मका त्याग जो करता है वह (इस तरह) राजस त्याग करके त्यागका फल हर्गिज नही पाता । हे अर्जुन, कर्तव्य समझके ही आसक्ति एव फलके त्यागपूर्वक जो निश्चित कर्म किया जाता है वही सात्त्विक त्याग माना जाता है ।७।८।। आगेके तीन श्लोक इस सात्त्विक त्यागकी रीति और आकार बताने- के साथ ही उसके कारण और परिणाम भी कहते है। ये तीनो बाते क्रमश तीन श्लोकोमे पाई जाती है। न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते । त्यागी सत्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥१०॥ न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः। यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥११॥ अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् । भवत्यत्यागिनांप्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ॥१२॥ सशयरहित विवेकी सात्त्विक त्यागी न तो बुरे कर्मसे द्वेष करता है (और) न अच्छेमे आसक्त हो जाता है । जब कि देहधारीके लिये सभी कर्मोका त्याग करना सभव ही नही है, तो जो केवल कर्मके फलका त्याग करता है वही (सात्त्विक) त्यागी कहा जाता है । बुरा, भला और मिश्रित यह तीन तरहका कर्मफल मरनेके बाद सात्त्विक त्याग न करनेवालोको ही मिलता है, न कि त्यागियोको भी कही (मिलता है)।१०।११।१२। पतजलिने योगदर्शनमे लिखा है कि साधारण मनुष्योके कर्म तीन प्रकारके होते है, जिन्हे शुक्ल, कृष्ण और शुक्ल-कृष्ण या मिश्रित कहते