पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८६७

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अठारहवां अध्याय ८८७ गहरे पानीमे यहाँ उतरना है नही और न इसकी जरूरत ही है। गीताका यह सिद्वान्त है भी नहीं। वह तो स्वतत्र आत्मानन्दको मानती है। हम यहाँ इतना ही कहना चाहते है कि सुख मिलते ही या तो दु ख खत्म हो जाता है, वह रही नही जाता, या कमसे कम' वह भूल तो जरूर जाता है, जवतक सुखका अनुभव रहे । इसलिये भी सुखका अभ्यास चाहते है । क्योकि जबतक ऐसा रहेगा दुख भूला रहेगा। दुखके भूल जानेमे दोनो बाते आ जाती है, दुखका खत्म हो जाना भी और खत्म न होनेपर भी उसका अनुभव तत्काल न होना भी। इसीलिये हमने यही अर्थ किया है । यह दु ग्वके भूलने की भी चाट ऐमी है कि हमे सभी तरहके कर्मोको करनेको विवश करती है । साथ ही, आतुरतावश आत्माको ही हम कर्मों- का करनेवाला तथा आधार मान लेते है । अतएव सुन्वके वारेमे कही गई ये टोनो बाते वडे कामकी होने के साथ ही प्रसगके अनुकूल भी है । यत्तदग्ने विषमिव परिणामेऽमृतोपमस् । तत्सुखं सात्त्विकं प्रोवतमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥३७॥ विषयेन्द्रियसयोगायत्तदग्रेऽमृतोपमम् । परिणामे विपमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥३८॥ यदग्रे चानुवन्धे च सुखं मोहनमात्मनः । निद्रालस्यप्रमादोत्यं तत्तामसमुदाहृतम् ॥३६॥