८८८ गीता-हृदय यहाँ पहले श्लोकमे अात्मानन्दका ही वर्णन है । इसीलिये उसके वास्ते किमी और वातकी जरत नहीं बताई गई है। केवल अपनी बुद्धि- को ही निर्मल और स्वच्छ करनेकी आवश्यकता कही गई है । वह तो मौजूद ही है, पास ही है । सिर्फ बुद्धिको एकाग्र और समाधिस्थ करने की जरूरत है ! बुद्विका अर्थ मन, चित्त या अन्त करण है। ऐमा होते ही वह आनन्द आप ही श्राप मिलने लगता है। कहा भी है कि "दिलके आईनेमे है तस्वीरे यार । जब जरा गर्दन झुकाई देख ली" । गर्दन झुकानेका मतलब मनकी एकाग्रतासे ही है । 'यात्मवुद्धि प्रसादजम्'मै जो आत्म शब्द है वह इन्ही बातोका सूचक है। यह मनकी एकाग्रता और समाधि बहुत ही कष्टसाध्य है । इसीलिये उस मुखको शुस्मे जहर जैसा कहा है । वह जहर जैसा हैके मानी कि उसके लिये जो कुछ करना होता है वह बहुत ही कठिन है । विपय सुखको राजस कहा है। वह पहले तो बहुत ही अच्छा लगता है और मनको रमाता है। मगर परिणाम उसका बुरा होता है । क्योकि बाल-बच्चो और सासारिक पदार्थोमे ही जिसे चस्का हो गया वह परलोक और कल्याणकी वात कुछ भी करी नही सकता। उसमे समाजहितका भी कोई काम नहीं हो सकता है । मनोरथोकी न कभी पूति होती है और न इनसे और इनके करते होनेवाले झझटोंसे छुटकारा ही मिलता है। फिर और वात हो तो कैसे ? इसीलिये सौभरि ऋषिके बारेमें कहा जाता है कि उनने समाधिको त्यागकर पूरे पचास विवाह किये। फिर महल बनाके मासारिक सुखका भोग शुरू किया | बच्चे, पोते, परपोते आदि हो गये, भारी परिवार बढ गया और "गीता फैल गई" | अन्तमे ऊवके उनने सबको लात मारी और कहा कि लाखो वर्षों मे भी मनोरथोकी पूर्ति हो नहीं सकती, आदि-आदि--"मनोरथाना न समाप्तिरस्ति वर्षायुते- नापि तथाब्दलः । पूर्णेषु पूर्वेषु पुनर्नवानामुत्पत्तय सति मनोरथानाम् । . +
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