अठारहवां अध्याय ८८६ + पद्भचा गता यौवनिनश्च याता दारैश्च सयोगमिता प्रसूता । दृष्ट्वा सुत तत्तनयप्रसूति द्रष्टु पुनर्वाञ्छति मेऽन्तरात्मा। आमृत्युतो नैव मनो- रयानामन्तोऽस्ति विज्ञातमिद मयाऽद्य । मनोरथासक्तिपरस्य चित्ते न जायते वै परमात्मसग"। यही आगय इस श्लोकका है, न कि वेश्यागामियो या दूसरे कुकर्मियोसे यहाँ मतलव है। उनका वर्णन तो तामस सुखमे ही आया है । क्योकि उस सुखका काम ही है आत्माको भटकाना । प्रमादसे ही वह पैदा भी होता है । कुकर्म तो प्रमाद और भटकना ही है न ? दिनरात पडे-पडे ऊँघते रहे और पालसमे दिन गुजारे यही तो तामसी वृत्ति है। ऐसे लोगोको इसीमे मजा भी मिलता है। यहाँ निद्राका अर्थ है ज्यादा निद्रा । क्योकि साधारण नीदमे तो सभीको मजा मिलता है । गाढी नीदके बाद हरेक आदमी कहता भी है कि "खूब पारामसे सोये, ऐसा सोये कि कुछ मालूम ही न पडा-"सुखमहमस्वाप्सन्न किंचिदवेदिषम्”। इस प्रकार त्रिगुण रूपमे सुख अादिका वर्णन कर दिया। इसका प्रयोजन हम पहले ही कह चुके है । शायद कोई कहे कि केवल सात्त्विक कर्म, ज्ञान, कर्ता आदिके ही वर्णनसे काम चल सकता था और लोग सजग होके आत्माको कर्मसे अलग मान सकते थे। फिर राजस, तामसोके वर्णनकी क्या जरूरत थी? बात तो सही है। मगर जब सात्त्विकका नाम लेगे तो खामखा फौरन आकाक्षा होगी कि राजस, तामस क्या है । जरा उन्हे भी तो जाने । और अगर यह इच्छा पूरी न हो तो निरूपण बेकार जायगा। बाते भी अच्छी तरह समझमे आ न सकेगी। मन दुविधेमे जो पड गया और समझना ठहरा उसे ही। एक बात और भी है। यदि राजस, तामसका पूरा ब्योरा और वर्णन न हो तो लोग चूक सकते है । वे दरअसल राजस या तामसको ही भूलसे सात्त्विक मान बैठ सकते है। इसीलिये साफ-साफ तीनोको एक ही साथ रख दिया है। ताकि आईनेकी तरह देख ले और धोकेसे बचे ।
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