पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८७१

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अठारहवां अध्याय ८६१ रहना ही होगा। नही तो बुद्धिकी पूरी सफाईके बाद भी उसपर रज, तमका धावा हो सकता है । अब प्रश्न पैदा होता है कि इसका उपाय क्या है कि सात्त्विक कर्म, ज्ञान, बुद्धि, सुख आदि ही रहे और राजस, तामस रहने न पाये--लोग इन दोनोके फेरमे न पडके सात्त्विकके ही पीछे लगे रहे ? विना उपाय जाने काम चलेगा भी कैसे ? साथ ही, जो उपाय हो भी वह किस तरह काममे लाया जाय, जिसमे कभी गडबडकी गुजाइश न रहे, यह भी प्रश्न होना स्वाभाविक है। इसीलिये आगेके श्लोकोमे इन्ही दोनोका उत्तर देते हुए समूचा अध्याय पूरा करके गीताका भी उपसहार कर दिया गया है। इसमे भी पहलेके चार (४१-४४) श्लोकोमे उपायोको बताके शेष श्लोकोमे उन्हीका प्रयोग बताया गया है। यह ठीक ही है कि दवाका प्रयोग निरन्तर तो होता है नही । बीच-बीचमे विराम तो करते ही है । कभी-कभी तो लम्बी मुद्दत तक दवा छोडके देखते है कि मर्ज गया या नहीं। उस समय दवाका छोड देना ही, दवाका काम करता है। नहीं तो आवश्य- कतासे अधिक दवाका प्रयोग कर देनेका खतरा आ सकता है। ठीक यही बात कर्मोकी है । वर्णोके कर्म तो उपायके रूपमे ही कहे गये है। मगर उन्हे छोड देनेकी भी जरूरत दवाकी ही तरह हो जाती है। नही तो इनका जरूरतसे ज्यादा प्रयोग हो जानेसे ही हानि हो सकती और काम बिगड सकता है। इस प्रकार कर्मोके स्वरूपत त्यागकी भी बात इसी सिलसिलेमे आ जाती है, आ गई है और वह उचित ही है। जलचिकित्सा- शास्त्रका तो यह एक नियम ही है कि बीच-बीचमे जरूर ही जलचिकित्सा बन्द कर दी जानी चाहिये । नही तो वह मनुष्यका एक तरहका स्वभाव बन जाती है। फिर तो उसका कुछ भी असर नही होता है । हाँ, नो आगेके चार श्लोकोमे जो वर्णोके धर्म कहे गये है वह त्रिगुणोसे बने विभिन्न स्वभावोके अनुसार ही माने गये है। बार-बार उन श्लोकोमे