पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८६२ गीता-हृदय यह बात कही गई है। यहाँतक कि हरेक वर्णके बारेमे अलग-अलग उसका जिक्र किया है। पहले श्लोकमे चारोके वारेमे एक साथ भी कह दिया है कि ये कर्म स्वाभाविक होते है, प्रकृतिके अनुसार ही होते है। हमने इस वातपर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही बाल दिया है। इस प्रसगमे इनके कहे जानेका आशय यही है कि यदि गुण-तारतम्यके अनुसार बना हुई मानव-प्रकृतिको जाँच करके उमीके अनुसार उसके कर्म निर्धारित किये जाये, तो राजस-तामसका झमेला खडा होगा ही नहीं । क्योकि सात्त्विक प्रकृतिवाले तो उनसे योही वच जायँगे। उन्हें दूसरे कर्म मिलेगे ही नही । इसीलिये राजस-तामस सुसोका भी मौका ही उन्हे न लगेगा। उनकी बुद्धि और धृति भी वैसी ही होगी। यदि कुछ कसर भी रहेगी तो ये कर्म ही उसे ठीक कर देगे। रह गये राजस तथा तामस प्रकृतिवाले । जव इन्हें भी प्रकृतिके अनुसार ही कर्म करनेकी विवशता होगी तो वे उसमे विशेषज्ञ और पारगत हो जायेंगे। नतीजा यह होगा कि उनकी हकीकत और असलियत समझने लगेगे। फिर तो धीरे-धीरे अपने भीतर ऐसी भावना और ऐसे सस्कार पैदा करेगे कि स्वयमेव उनकी प्रकृति बदलेगी। फलत इस जन्ममे नही, तो पागे सात्त्विक मार्गपर पाई जायँगे। विशेषज्ञताका तो मतलव ही है उसका रग-रेशा पहचान लेना । उसका सिर्फ यही मतलब नहीं होता कि उसपर अमल अच्छी तरह किया जाय । किन्तु उसकी कमजोरियां, बुराइयाँ और हानियां भी मालूम हो जाया करती है, आँखोके सामने नाचने लगती है और यही चीज आगेका रास्ता साफ करती है । वर्णाश्रमोके धर्मोकी इस तरह सख्तीके साथ पावन्दीकी जो बात पहले जमाने में थी उसका यही मतलब था। हम यह पहले ही अच्छी तरह सिद्ध कर चुके है। आज जो श्रम-विभाजन (division of labour) का सिद्धान्त बहुत व्यापक रूपमे काममे लाया जाकर पराकाष्ठाको पहुंचा दिया गया