अठारहवाँ अध्याय खेती, पशुपालन (और) व्यापार (ये) वैश्योके स्वाभाविक कर्म है। शूद्रोका भी स्वाभाविक कर्म सेवा-रूप ही है ।४४। यहाँ ब्राह्मणो और क्षत्रियोके स्वतत्र रूपमे विस्तृत कर्मोका जुदा- जुदा वर्णन और शूद्रो तथा वैश्योके कर्मोका एक ही श्लोकमे सक्षेपमे ही वर्णन यह सूचित करता है कि उस समय वैश्य और शूद्रका दर्जा प्रायः समकक्ष, परतत्र और छोटा माने जाने लगा था। मगर ब्राह्मण तथा क्षत्रिय प्राय समकक्ष होनेके साथ ही ऊँचे एव स्वतत्र माने जाते थे। शूद्रके कामका तो खास नाम भी नही दिया है। किन्तु "सेवा-रूप” कह दिया है। इससे खयाल होता है कि जरूरत होने पर उससे हर तरहका काम करवाके उस कामको सेवाका रूप दे दिया जाता था। इससे यह भी स्पष्ट है कि समाजके लिये वह फिर भी बहुत ही उपयोगी और जरूरी था। आखिर सेवाके बिना समाज टिकेगा भी कैसे ? हमने इसपर पूरा प्रकाश पहले ही डाला है । इस श्लोकमे “शूद्रस्यापि" मे शूद्र के साथ 'भी'के अर्थमे 'अपि' आया है। उससे यह भी साफ झलकता है कि उस समय सेवा धर्म शेष तीन वर्णोंका भी था और आज उसे जितना बुरा मानते है, पहले यह वात न थी। इसीके साथ यह भी सिद्ध हो जाता है कि शूद्रोका कोई अपना खास पेशा या काम न था। जरूरत होने पर वह तीनो वर्णोका काम करते रहते थे। हमने इस पहलू पर भी पहले ही ज्यादा प्रकाश डाला है। शेष तीनके साथ 'अपि' न देके केवल शूद्रके साथ ही देनेका दूसरा आशय हो नहीं सकता। ऐसी दशामे शूद्रोको छोटे या नीच माननेका एक ही कारण हो सकता है और वह यह कि उनकी स्वतत्र हस्ती न थी, जैसी कि शेष तीनकी थी। क्योकि उनका कोई निजी पेशा न था । और जान पडता है, उस समय निजी पेशेका होना जरूरी एव प्रतिष्ठाका चिन्ह माना जाता था। इसीलिये शूद्र छोटे समझ गये । वैश्योके भी छोटे माने जानेकी प्रवृत्ति शायद इसीलिये हुई कि खेती, व्यापार या पशुपालनकी उस समय
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